
शक्ति ‘ न वह पुरुष है , न स्त्री है और न ही नपुंसक। वह चित् अर्थात् नित्यज्ञान मात्र है। उसके बिना कहीं भी स्फुरण संभव नहीं। संसार उसी की आकृति है। सृजन , संहार और पालन उसका कृत्य है। ’ उपनिषद , पुराण और आगम ग्रंथों ने शक्ति की कल्पना को ऐसा ही रुप दिया है। शक्ति या विभव शाक्त चिंतन का केन्दीय तत्त्व है। शाक्त धर्म - दर्शन शक्ति को सृष्टि अर्थातृ सृजित विश्व के मूल में देखता है। शक्ति ही उत्थान और पतन , या यह कहें कि प्रत्येक परिवर्तन की प्रेरक है। इसकी क्रियाशीलता पर सृष्टि का स्वरुप निर्भर करता है। मनुष्य के स्वत्व , भावनात्मकता और शारीरिक स्वरुप में बदलाव को यही उद्दीपित करती है। मुक्ति के लिए भी शक्ति की ही सहायता आवश्यक है। पौराणिक रूपक है कि दक्ष पुत्री सती ने शिव को पति के रूप में वरण किया। दक्ष की शिव के प्रति अच्छी धारणा नहीं थी। वह कुपित हुआ। दक्ष ने ...