शक्ति
      ‘ वह पुरुष है, स्त्री है और ही नपुंसक। वह चित् अर्थात् नित्यज्ञान मात्र है। उसके बिना कहीं भी स्फुरण संभव नहीं। संसार उसी की आकृति है। सृजन, संहार और पालन उसका कृत्य है।
       उपनिषद, पुराण और आगम ग्रंथों ने शक्ति की कल्पना को ऐसा ही रुप दिया है। शक्ति या विभव शाक्त चिंतन का केन्दीय तत्त्व है। शाक्त धर्म-दर्शन शक्ति को सृष्टि अर्थातृ सृजित विश्व के मूल में देखता है। शक्ति ही उत्थान और पतन, या यह कहें कि प्रत्येक परिवर्तन की प्रेरक है। इसकी क्रियाशीलता पर सृष्टि का स्वरुप निर्भर करता है। मनुष्य के स्वत्व, भावनात्मकता और शारीरिक स्वरुप में बदलाव को यही उद्दीपित करती है। मुक्ति के लिए भी शक्ति की ही सहायता आवश्यक है।
       पौराणिक रूपक है कि दक्ष पुत्री सती ने शिव को पति के रूप में वरण किया। दक्ष की शिव के प्रति अच्छी धारणा नहीं थी। वह कुपित हुआ। दक्ष ने शिव को अपमानित करने के लिए यज्ञ किया। यज्ञ में उन्हें निमंत्रित नहीं किया। सती पितृगृह जाने के लिए उद्धत हुईं। शिव ने यह कहते हुए मना किया कि पति निंदा सुन कर सह नहीं पाओगी। ऐसे में अमंगल होगा। समझाने पर भी वह पितृगृह जाने के लिए उद्धत बनी रहीं। अपना ऐश्वर्य दिखाने के लिए उन्होंने महाविद्या का रूप धारण कर लिया। वह दक्ष के घर चली गयीं। पितृगृह में वहीं हुआ, जो संभावित था। उन्होंने प्रतिकार का रास्ता ढूंढ़ा। लेकिन महाविद्या रूप काम नहीं आया। दुखी सती ने क्षोभ में देह त्याग दिया।
       सती के देह त्याग की सूचना पाकर शिव यज्ञ भूमि पहुँचे। सती के शव को कंधे पर ले कर तांडव मचा दिया। यज्ञ ध्वंस कर डाला। चिंतित देवताओं ने उन्हें रोकने का प्रयास किया। विष्णु ने सती के शव को खंड-खंड कर चारों ओर फेंक दिया। कथा आगे बढ़ती है। मोह रूपी असुरों के राजा तारकासुर का अत्याचार बढ़ता गया। देवताओं का जीना मुश्किल होता गया। हिमालय की बेटी के रूप में शक्ति का पुनः अबतरण हुआ। तारकासुर का वध शक्ति के पुत्र स्कंद के हाथों हुआ।
        इस पौराणिक रूपक का दक्ष स्वयं जीव या सर्जक है। अगले पड़ाव पर उसी को हिमालय भी कहा जाता है। दक्ष के पास पांडित्यपूर्ण बुद्धि और असीम वाग्मिता है। किन्तु वह शिव से विमुख है। महिषासुर, रावण और कंस वाली पवृत्ति पा कर वह हृदयहीन हो गया है। आसुरी प्रवृत्तियां उस पर हावी हो गयी हैं। वह अपने अहंकार के अनुरूप सृष्टि को आकार देने में लगा है। हालांकि वह जीवन संग्राम, रोग, शोक आदि से घिरता-पिसता ही चला जाता है। उस दुर्दिन में भी पार्वती या उमा उसका साथ नहीं छोड़तीं। दक्ष उनकी उपेक्षा करता है। बुरे दिन बीत जाने के बाद तो वह परम्सत्य से पूरी तरह विमुख हो जाता है। सौ-सौ मुंह उसकी निंदा करता है। अवज्ञा की हँसी हँसता है। दक्ष और भी तंगदिल एवं निर्दयी हो जाता है।
       मनुष्य अपनी वृत्तियों की चपेट में पड़ा, अहंकारवश भटकता रहता है। पाषाण पिंड की तरह जड़़़ता का शिकार होता जाता है। यही जड़ सर्जक हिमालय है। सात्विक भावों को अपने हृदय में स्थान नहीं देता। हालांकि इस अवस्था में भी वह विश्वेश्वरी या शक्ति की कृपा से वंचित नहीं रह पाता। सती उसके शरीर को चाहे छोड़ भी दें उसके हृदय में बनीं रहती हैं।
        इस कथा का शिव ज्ञान या प्रज्ञा का प्रतीक है। प्रत्येक जीव में मौजूद विशुद्ध चेतना को आख्यान में शिव कहा गया है।  ज्ञान से वृत्तियों के प्रभाव का अंत होता है इसलिए ज्ञान ही शिव है। इसी को सत्य, ज्ञान, अमृत और आनंद भी कहा जाता है। सत्यनिष्ठ जीव भयमुक्त होता है। ज्ञान की निष्क्रिय अवस्था ब्रह्म का पर्याय अर्थात् शिव है, तो सक्रिय अवस्था शक्ति का। ज्ञानाविमुख शक्ति को ही आसुरी शक्ति कहा जाता है। ज्ञानमुखी शक्ति अमरता और शांति देती है। मन से सृष्टि आरंभ होती है, इसलिए वह ब्रह्मा है। प्राण से स्थिति अर्थात् पालन या भोग होता है, इसलिए प्राण विष्णु है। दक्ष मानापमान के भय से शंकित और त्रस्त है। वह भोग-विलास को ही काम्य अथवा आदर्श मान इसी में डूबता-उतराता रहता है। इसी अवधारणात्मक पृष्ठभूमि में मानवीकरण की प्रक्रिया में शक्ति के विभिन्न रूपों या विंबों की रचना इसकी गतिविधियों को स्पष्ट करने के लिए की गयी है।
      कर्मकांडों के जड़ बंधन को तोड़कर चिंतन को सत्यज्ञान से जोड़ने के वैचारिक संघर्ष के क्रम में शाक्त-चिंतन का उद्भव हुआ। विभिन्न जातीय समूहों के एकीकरण की आवश्यकता से यह प्रयास ऊर्जायित था। यह एकीकृत जातीय समूहों की कल्पनाओं में मौजूद अलग-अलग बिंबों के संविलयन का परिणाम भी था।
      शक्ति के विंब की यात्रा वास्तव में मातृरुप में शुरू हुई। सिन्धुघाटी के निवासियों के साथ आर्यों के एकीकरण के क्रम में मातृदेवी आर्यजीवन से जुड़़ गयीं। वहाँ मातृदेवी के रुप में जननांगों की पूजा होती थी। यह निष्कर्ष इसलिए निकाला जाता है कि वैदिक संस्कृति में जनन अंगों की पूजा परंपरा नहीं थी।
         हालांकि अंबिका नाम की एक देवी भी इसी प्रक्रिया में वैदिक रुद्र से जुड़ चुकी थीं। यजुर्वेद कात्र्यंवक होम स्तोत्रयह सूचना देते हुए अंबिका को रुद्र की बहन बताता है। स्पष्ट है कि हिमालय में बसनेवाली किसी जाति के साथ आर्यों का एकीकरण भी हो चुका था। महाभारत का किरातार्जुनीय प्रसंगत्र्यंवक होमके साथ मिलकर इसी तरह का संकेत देता है।त्र्यंवक होमकी पूजन विधि यजुर्वेद की सामान्य पूजनाविधि से भिन्न है। यह तथ्य भी एकीकरण की अवधारणा को ही बल देता है। स्तोत्र रुद्र को नये रुप में प्रस्तुत करते हुए उसे खाल का वस्त्र पहनने और कंदरा में रहने वाला बताता है, बाजसनेयी संहिता और तैत्तरीय ब्राह्मण भी अंबिका का चित्रण रुद्र की बहन के रुप में करता है।
         इस एकीकरण का परिणाम था आर्य धर्म में देवी की उपासना का समावेश। उस पुरुष देवता की उपासना देवी की उपासना के साथ संबद्ध थी। अंबिका नाम की  देवता के साथ रुद्र का संबंध हो ही चुका था। सिन्धुघाटी की मातृदेवी का रुद्र से एकीकरण तो अंबिका रुद्र की पत्नी हो गयी। वह देवी माता थी। इसलिए अंबिका भी माता बन गयी। रुद्र-शक्ति और अपने स्वतंत्र रुप दोनों में इनकी उपासना होने लगी। स्वतंत्र उपासना की पद्धति से शाक्त अथवा तांत्रिकमत का सूत्रपात हुआ। शाक्त चिंतन को छठी से नौवीं सदी के बीच व्यवस्थित रूप दिया गया। शक्ति वेदोत्तर चिंतन की सर्वेांत्कृष्ट अभिव्यक्ति है।
       वैदिक रुद्र का स्थान एकीकरण की जरूरतों के कारण जनमन में ऊंचा उठता गया। आरण्यक एवं उपनिषदों की रचना में जुटे ऋषियों ने इसे स्वर दिया। रूद्र की अवस्था में उत्कर्ष की झलक उपनिषद् दिखाते हैं। खासकर श्वेताश्वतर, केन्, बृहदारण्यक-जैसे उपनिषद् शिव और शक्ति से संबद्ध चिंतन का दार्शनिक आयाम प्रस्तुत करते हैं।
         श्वेताश्वतर उपनिषद् विश्व की सर्जक शक्ति के रुप में प्रकृति की चर्चा करता है। वह पुरुष या परब्रह्म की शक्ति है। ब्रह्म उसी के सहारे विश्व की सृष्टि करता है वह अनादि है, पुरुष के साथ निरंतर मौजूद है। पुरूष स्वयं स्रष्टा नहीं। प्रकृति को क्रियाशील बनाकर प्रेक्षक के रुप में स्थिर रहता है। श्वेताश्तर की तरह ही केन भी शिव-शक्ति की कल्पना पर प्रकाश डालता है। वृहदारण्यक में देवी को दिया गया उमा-हैमवती नाम भी इस संदर्भ को शिव शक्ति से जोड़ देता है। शिव की सहचरी का नाम उमा है। हिमालय में बसने वाली किसी जाति के बीच से यह बिंब आया था। इस कारण यह हिमालय की बेटी भी थी। इसी क्रम में उसे पार्वती भी कहा गया, जो बाद के दौर का उसका सबसे प्रसिद्ध नाम है। श्वेताश्वतर उपनिषद् इसी को प्रकृति कहता है।
        गृह्यसूत्रों में रुद्र की पत्नी स्वतंत्र देवता के रुप में नजर आती है, रुद्र के साथ-साथ इस स्त्री देवता की पूजन की विधियां बतायी गयी हैं। इसी क्रम में उसे दुर्गा कहा गया है। इस दौरान देवी को आर्या, भवति, देवसंकीर्ति-जैसे नाम दिये जाते हैं। उसे महाकाली, महायोगिनी, शंखधारिणी और मनोरमा भी कहा जाता है।
       रामायण की रचना के काल तक रुद्र की पत्नी उमा का व्यक्तित्व काफी निखर चुका था। रुद्र के साथ उसका उल्लेख किया जाता है। उसे भवानी कहा जाता है। उसे कल्याण और दया का पर्याय माना जाता है। इस क्रम में उसे देवी कहकर पुकारा जाता है। महाभारत में ऐसी अनेक कथाएं आयी हैं, जो देवी के व्यक्तित्व के अलग-अलग आयाम को प्रस्तुत करती हैं।
        पुराण साहित्य शिव और शक्ति की कल्पना को दार्शनिक अवधारणाओं के साथ प्रस्तुत करता है। उसे शिव से पूरी तरह अभिन्न बताया जाता है। सहचरी के रुप में शिवप्रिया जाता है। शिव परमपिता हैं तो वह महामाता। सौर पुराण उसे सभी शक्तियों की जननी, विश्वमाता और सबका कल्याण करनेवाली के रुप में चित्रित करता है।
        वैदिक साहित्य में रुद्र का रुप सामान्यतः अग्र और सौम्य है। समान रुप से देवी के भी पालक और संहारक, दोनों रुप हैं। रामायण, महाभारत और खासकर पुराण साहित्य देवी के सौम्य और उग्र रुप को एकीकृत कर प्रस्तुत करते हैं। ब्रह्मावैवर्त पुराण में दोनों रुपों का मिश्रण स्पष्ट दिखाई देता है। इस क्रम में वायु पुराण कहता है कि देवी शुरू से आधा श्वेत और आधा काली थीं। फिर उसने दोनों वर्णों में खुद को अलग-अलग कर लिया। मार्कण्डेय पुराण कहता है कि सृजन और कल्याण के रास्ते की बाधा के रुप में मौजूद मोह रुपी दानवों के विनाश के लिए देवी ने खुद को अम्बिका से पृथक कर लिया। यह सृजन प्रक्रिया में शक्ति की गतिविधियों को वर्गीकृत कर नव दुर्गा रुप में प्रस्तुत करता है।
        आगम ग्रंथों के अनुसार शक्ति वह प्रदीप्ति है, जो तीनों कालों में प्रत्येक दृष्टि से, सभी पदार्थों में मौजूद है। यह सभी कर्मो की अधिष्ठाता है। सभी पदार्थों की आत्मा है। यह चेतन और निर्गुण है। सारे कार्यों के मूल में शक्ति है। यह शक्तिमान अर्थात् शिव के साथ एकाकार है। वह व्यक्त भी है और अव्यक्त भी। क्रियाशील शिव व्यक्त जगत् के रुप में स्वयं अपना बोधक है। शिव का एकमात्र निषेध शक्ति है। यही अव्यक्त इच्छा भी है। एक ग्राहक है, दूसरा ग्राह्य। माया दोनों को एक-दूसरे से अलग करती है। निराकार को साकार रुप देने वाली ही माया है। शक्ति जब स्वभाव से, अपनी इच्छा से, अपनी मनःशक्ति से आकर ग्रहण करती है, तब उसे माया कहते हैं यह तीन गुणों को धारण किये है, जिन्हें सत, रज और तम कहा जाता है। क्रिया शक्ति का नाम रज, स्थिति का सत और सिमट कर लय हो जाने का नाम तम है। इन गुणों को धारण कर शक्ति अनंत रुपों में बंट जाती है। तंत्र बताते हैं कि शक्ति ही विश्व का सृजन करती है। शिव और शक्ति के समन्वय से सृजन सम्पन्न होता है। काल और यज्ञ-शिव के दो रुप हैं। काल का आरंभ और अंत नहीं। इन दोनों गुणों को धारण करने वाला यज्ञ है। काल का ही टुकड़ा यज्ञ है। काल सृष्टि का प्रवर्तक है। यज्ञ-पुरुष काल के सहारे ही निर्माण करता है। महाकाल के उदर में अनंत विश्व-चक्र चलाते रहते हैं।
        इस तरह, सृजन के तीन आयाम हैं। महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती इन्हीं की प्रतीक हैं। प्रलय या संहार महाकाली का कृत्य है। वह कृष्णवर्ण की है। महालक्ष्मी का संबंध सृजन और पालन से है, यह रक्तवर्ण की है। महासरस्वती मुक्ति देने वाली है। यह श्वेत वर्ण की है। इन्ही में मुक्ति निहित है। पुरुष की शक्ति ही तीन भागों में बंटकर प्रलय, सृजन और मुक्ति का कारण बनती है। सृजन-विद्या ही महाविद्या है। सृजन प्रक्रिया के दस पड़ाव है। इसी के अनुरुप इस महाविद्याएं हैं।
         तंत्र बताते हैं कि बल, सामर्थ, प्रवीणता आदि शक्ति ही है। यह एक है। अनंत भी है। यह सर्जक की सारी इच्छाओं को जिस एक रुप में पूरा करती है, उसे गौरी या लक्ष्मी कहा जाता है। इच्छा और माया के भेद के कारण यह दो तरह की है। सृजन, संहार और पालन के कृत्य के हिसाब से यह तीन रूपों में बंटी है। रुप, यौवन, शील और सौभाग्य के भेद से चार और प्राणेश्वरी, मुदमंगलदायिनी, दुःखहरा, विद्यादातृ और तेजदातृ रुप में यह पांच वर्गों में विभाजित है। छःरुपों में इसे पराशक्ति, ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति, कुण्डलिनीशक्ति और मातृकाशक्ति कहा जाता है। ताप, विद्युत, आकर्षण, मध्याकर्षण, आलोक और रसायनिक-गुण के रुप में सात तथा अणिमा, लघिमा, गरिमा, महिमा, इशित्व, वशित्व, प्राप्ति और प्रकाम्या-जैसी सिद्धि के रुप में आठ प्रकार की है। मातृका रुप में इसे इसे सोलह तरह का माना गया है। शक्ति के एक्यावन पीठ, चैसठ योगिनियां और सौ कीर्तियां हैं। चामपुण्डा और राजराजेश्वरी रुप में यह एक सौ एकसठ प्रकार की है। वहीं प्राणी और पदार्थ रुप में यह अनंत है।
        शक्ति नित्य है ! शक्ति अनंत है ! शक्ति निर्विकार है !

- पुरुषोत्तम  



Comments

  1. बहुत अच्छे

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  2. क्या यह सही है कि हिन्दु धमॆ मे अन्य धमॆ की तुलना में शक्ति को अधिक स्थान दिया गया है । क्यो ।

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  3. shakti, bhakti,aashakti evam virkti ka bhav kya yahi hai life ka connection?

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  4. सृजन के तीनो आयामों की चर्चा कर आपने मेरे विचारों को बदल डाला। बधाई

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