
ब्रह्म पुरुषोत्तम वह ( ब्रह्म ) पूर्ण है। यह ( आत्मा ) भी पूर्ण है। पूर्ण से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है। पूर्ण के पूर्ण में मिल ( विलीन हो ) जाने पर पूर्ण ही बचा रहता है। उपनिषदों में ब्रह्म की कल्पना इसी प्रकार की गयी है। पहली बार प्रकट होने वाले को ब्रह्म कहा जाता है। इसीलिए इसे स्वयंभू नाम दिया जाता है। यह स्वयं सत्तावान है। विश्व का उद्भव इसी से होता है। मृत्यु के बाद सभी इसी में समा जाते हैं। कुल मिलाकर बढ़ने वाले को ब्रह्म कहा जाता है। उपनिषदों की रचना में उस संन्यासी तबके ने भूमिका निभायी थी जो ब्राह्मण तबके के प्रभुत्व और अपनी ही अवधारणधारणाओं से कटे आडम्बर युक्त राजयज्ञों से खुद को सहमत नहीं पा रहा था। ये यज्ञ राजा द्वारा प्रवर्तित होते थे। समझ थी कि राज्याभिषेक के यज्ञ राजसूय और सालों की तैयारी के बाद होने वाले अश्वमेध के क्रम में शुद्ध हो कर राजा दैवी गुणों से युक्त हो जाता है। धार्मिक चिंतन के स्वरूप में आये इस बदलाव के फलस्वरूप वैदिक देवताओं की स्थिति कमजोर होती गयी। इनके विरुद्ध...