ब्रह्म
पुरुषोत्तम
वह (ब्रह्म)
पूर्ण है। यह
(आत्मा) भी पूर्ण
है। पूर्ण से
ही पूर्ण की
उत्पत्ति होती है।
पूर्ण के पूर्ण
में मिल (विलीन
हो) जाने पर
पूर्ण ही बचा
रहता है।
उपनिषदों में
ब्रह्म की कल्पना
इसी प्रकार की
गयी है। पहली बार
प्रकट होने वाले को ब्रह्म कहा जाता है। इसीलिए इसे स्वयंभू नाम दिया जाता है। यह स्वयं
सत्तावान है। विश्व का उद्भव इसी से होता है। मृत्यु के बाद सभी इसी में समा जाते हैं।
कुल मिलाकर बढ़ने वाले को ब्रह्म कहा जाता है। उपनिषदों की रचना
में उस संन्यासी
तबके ने भूमिका
निभायी थी जो
ब्राह्मण तबके के
प्रभुत्व और अपनी
ही अवधारणधारणाओं से
कटे आडम्बर युक्त
राजयज्ञों से खुद
को सहमत नहीं
पा रहा था। ये
यज्ञ राजा द्वारा
प्रवर्तित होते थे।
समझ थी कि राज्याभिषेक के यज्ञ राजसूय और सालों की तैयारी के बाद होने वाले अश्वमेध
के क्रम में शुद्ध हो कर राजा दैवी गुणों से युक्त हो जाता है।
धार्मिक चिंतन के स्वरूप
में आये इस बदलाव के फलस्वरूप वैदिक देवताओं की स्थिति कमजोर होती गयी। इनके विरुद्ध
प्रतिक्रिया संन्यास के रूप में हुई। सांसारिक आसक्तियों, विषय-वासनाओं और अनुरागों
का परित्याग करने वाले को संन्यासी कहा गया। संन्यास की परंपरा का इस काल में जबर्दस्त
फैलाव हुआ। संन्यासी समाज से दूर जंगलों में एकांतवास करते थे। कभी-कभी वे समूह में
भी रहते। इस तबके ने सामाजिक-आर्थिक वर्चस्व के मुकावले परित्याग का आदर्श प्रस्तुत
किया। सृष्टि के स्वरूप पर प्रकाश डालने वाली नयी चिंतनधाराओं की तलाश में तपस्या या
साधना की। ऋग्वेद, अथर्ववेद, ब्राह्मणग्रंथों और आरण्यकों में मौजूद मुनि, वातरासन,
यति, ब्रात्य और श्रमण परंपरा की मौजूदगी के संकेत देने वाले संदर्भ और कथाओं के आधार
पर अध्ययनकर्ताओं का यह निष्कर्ष है कि रुढ़िग्रस्त वैदिक धर्म से असहमति जताने वाले
आरंभिक चिंतकों को ही ऋग्वेद में वातरासन कह कर संबोधित किया गया है। उन्हें ही आरण्यकों
के काल में श्रमण कहा गया। वही ऋग्वेदिक यति भी हैं ऐतरेय ब्राह्मण की कथा में जिनकी
हत्या इन्द्र द्वारा की गयी।
ऋग्वेदिक काल के अंत में जब वर्णवाद की शुरुआत हुई। यह तबका बदलाव
को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुआ। इसने नये वैदिक अनुष्ठानों, बलि प्रथा और वेदों
को प्रमाण मानने से इनकार किया। कालक्रम में संन्यासियों के भी दो रूप प्रकट हुए। एक
ने स्वयं की मुक्ति की तलाश में साधना और तपस्या करते हुए जंगलों में ही जीवन बिता
दिया। वहीं, दूसरा ज्ञान प्राप्ति के बाद समाज में लौट कर पुनः आया। इस वर्ग ने पूरे
समाज की मुक्ति के उद्देश्य के प्रति समर्पित अभियान संगठित किये। अपना पूरा जीवन इन
अभियानों की सफलता के लिए होम कर दिया।
आरंभिक उपनिषदों में उसी परम तत्त्व की व्याख्या की गयी। इनमें आत्मा
और ब्रह्म को एक बताया गया। कहा गया कि सृष्टि में व्याप्त चेतन शक्ति ब्रह्म है तो,
मनुष्य में व्याप्त चेतन शक्ति आत्मा है। अन्न से निर्मित मनुष्य के शरीर को इसने अन्नमय
कोश, अन्नमय कोश में मौजूद प्राणदायिनी शक्ति को प्राणमय कोश, मनुष्य में मौजूद मनन
की शक्ति को मनोमय कोश, मनोमय कोश में मौजूद इससे भी सूक्ष्म चेतन शक्ति को विज्ञानमय
कोश तथा विज्ञानमय कोश में निहित सूक्ष्मतम कोश को आनंदमय कोश नाम दिया गया। उसकी नजरों
में यही अनंदमय कोष विशुद्धानंद का स्थान है। शरीर आनंदमय कोश के रूप में ही अमर औरं
अपार्थिव आत्मा का आधार है।
उपनिषद् वेदों के अंतिम भाग माने जाते हैं। इनमें ब्रह्म के स्वरूप का विशद विवेचन
किया गया है। इनमें ब्रह्म प्राप्ति के विविध साधन पर भी विस्तार से चर्चा की गयी है।
अनेक अध्ययनकर्त्ता उपनिषद् का अर्थ सांसारिक क्लेशों के विनाश, ब्रह्म की प्राप्ति
और आवगमन के बंधनों से मुक्ति के रूप में करते हैं। पाणिनी ने उपनिषद् शब्द का उपयोग
(जीविकोपनिषदावौपम्ये: 1.4.61) रहस्य अथवा परोक्ष के अर्थ में किया है।
उपनिषदों की संख्या को लेकर अध्ययनकर्त्ताओं में मतभेद
है। मुक्तिकोपनिषद् के अनुसार इसकी संख्या 108 है। शंकराचार्य ने ईश, केन, कठ, प्रश्न,
मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तरेय, छांदोग्य और बृहदारण्यक, इन दस उपनिषदों पर भाष्य
लिखा है। उपनिषद् वेदों के अंतिम भाग कहे गये हैं। मान्यता है कि ऋग्वेद के दस, शुक्ल
यर्जुर्वेद के 19, कृष्ण यर्जुर्वेद 12, सामवेद के 16 तथा अथर्ववेद 31 उपनिषद् हैं।
उपनिषदों की रचना शैली और भाषा पर विचार करते हुए अध्ययनकर्त्ता
इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि इनकी रचना कई शताब्दियों में क्रमशः हुई है। इसकी उपासना
पद्धति में विष्णु, शिव, शक्ति आदि की ब्रह्म के रूप में स्थिति प्रतिपादित है। इनमें
जीवात्मा और परमात्मा के एकत्व का सूक्ष्म (तत्त्वमसि) विवेचन किया गया है। अध्ययनकर्ताओं
की मान्यता है कि दार्शनिक चिंतन की भारतीय
धाराओं के बीज उपनिषदों में मौजूद हैं। इन्हीं के आधार पर भारतीय निवृत्तिमार्ग का
विकास हुआ है। आटोवेकर ने रचनाकाल की दृष्टि से उपनिषदों को चार भागों में बांटा है।
उनका मानना है कि बृहदारण्यक, छांदोग्य, कौशीतकी और ब्रहृमोपनिषद सबसे प्राचीन हैं।
ऐतरेय, तैत्तरीय और काठक को वह पाणिनी के पूर्व का मानते हैं। उन्हें प्रतीत होता हैं
कि केन और ईश भी पाणिनी के पूर्व के हो सकते हैं। वहीं, उनकी नज़रों में, श्वेताश्वतर,
मैत्रायणी जैसे उपनिषद पाणिनी के बाद के हैं।
विषय की दृष्टि से उपनिषदों
को तीन भागों में विभाजित किया जाता है-ज्ञानप्रतिपादक उपनिषद्, ब्रह्मप्रतिपादक उपनिषद्
और साधना प्रतिपादक उपनिषद्। ज्ञानप्रतिपादक उपनिषदों की मान्यता है कि जीवन को मोक्ष या
मुक्ति की ओर अग्रसर करने के लिए भावनाओं और विचारों का परिशोघन आवश्यक है। ये इसे
अपने विचार का विषय बनाते हैं। इस श्रेणी में ईशावास्य, कठ,
केन, प्रश्न, मुंडक, माण्डुक्य, ऐतरेय, तैत्तरीय, श्वेताश्वतर, गर्भ, मुद्गल, आक्षि,
आध्यात्म, महोपनिषद्, मैत्रायिणी, शिवसंकल्प, आश्रमद्वय, वज्रसूचिक, कौशीतकि,
अथर्वविंश, स्कंद, सर्वसार, शुकररहस्य, यान्त्रिक, प्रणव, निलरालंब, जावाल, दर्शन,
गायत्री, अमृतनाद, एकाक्षर, नादबिन्दु, भावना, योगराज तथा आत्मपूजोपनिषद, कुल पैतीस
उपनिषदों को रखा जाता है।
इन उपनिषदों में ब्रह्मविद्या
के स्वरूप पर तो चर्चा की गयी है। प्रश्नोत्तर के रूप में आसक्तिओं का आधार बनने वाले
विचारों की निःसारता का प्रतिपादन कर सत्य की ओर संकेत किया गया है। कठोपनिषद् का नचिकेता-यम
संवाद इसी का उदाहरण है। इस कथा में नचिकेता ने यम से तीन वरदान मांगे - पिता की क्रोधग्नि
की शांति, यज्ञीय विधान तथा परलोक का ज्ञान। प्रश्नोपनिषद् में श्रद्धा ब्रह्मचर्य, तप और धैर्य, इन चार चीजों
को ब्रह्मप्राप्ति की आधारशिला बताया गया है। मुंडकोपनिषद् में शौनक-अंगिरा संवाद के
रूप में परा और अपरा विद्या का विवेचन किया गया है। ऐतरेय उपनिषद् सृष्टि के उद्भव
की प्रक्रिया अथवा क्रम का ज्ञान कराता है। अक्षुपनिषद् योग की सात भूमिकाओं की जानकारी
देता है। यह सूर्य और सांकृतिमुनि के बीच के संवाद के रूप में इस विषय पर यह चर्चा
करता है। ईशोपनिषद समुच्चय सिद्धांत का उपदेशक
है। यह ब्रह्म की व्यापकता पर चर्चा करता है। यह ब्रह्म और आत्मा में अभेद की समझ पर
जोर देता है। वेदांत के प्रधान सिद्धांतों और गीता में वर्णित कर्मयोग के सिद्धांतों
के आरंभिक स्वरूप की प्रस्तुति करता है। श्वेताश्वतर उपनिषद् प्रकृति और पुरुष से संबद्ध
चिंतन को प्रस्तुत करता है, जो बाद के दौर में सांख्यसिद्धांत के रूप में व्याख्यायित
होता है।
ब्रह्मप्रतिपादक या ब्रह्मविद्या के स्वरूप का प्रतिपादन करने वाले
उपनिषदों की संख्या भी 35 ही है। ब्रह्मोपनिषद्, ब्रह्मविद्या, तेजोबिन्दु, क्षुरिका,
योगतत्त्व, सुबाल, मंडल, हंस, स्वयंवेद्य, जावालि, मेनपी, शाण्डिल्य, परंब्रह्म, कठसद्र,
कुण्डिक, आसणिक, संन्यास, नारदपरिव्राजक, पैंगल, महावाक्य, आत्मबोध, कैवल्य, ब्रह्मबिन्दु,
आत्मा, पंचब्रह्म, शारीरिक, शाट्यायन, याज्ञवल्क्य, जावाल, परमहंस, निर्वाण, परमहंस
परिव्राजक, भिक्षुक, तुरीयातीत और अवधूत।
साधनाप्रतिपादक उपनिषदों की संख्या चालीस है। इनमें योग साधना की
विभिन्न पद्धतियों तथा इससे प्राप्त हो वाले परिणाम का वर्णन किया गया है। इन उपनिषदों
में साधना के प्रकारों में लौकिक और पारलौकिक, दोनों प्रकार के लाभों का संकेत है।
इनकी रचना का काल बहुत बाद का है। इनके नाम हैं: योचूड़ामणि, अन्नपूर्णा, विशिखब्राह्मण
अद्वयतारक, पाशुपतिब्रह्म, प्रणाग्निहोम, योगकुण्डली, ध्यानबिन्दु, अक्षमालिका, रुद्राक्षजाबाल,
रामपूर्वतापिनी, कृष्णोपनिषद्, गणपति, नृसिंहपूर्वतापिनी, नृसिंहोत्तरतापिनी, नृसिंहषठचक्र,
दक्षिणमूर्ति, रुद्र, कालाग्निरुद्र, गारुड़, लांगूल, गायत्रीरहस्य, सावित्री, सरस्वति,
देवी वहबृच, सौभाग्यलक्ष्मी, त्रिपुरा, सीता, राधा, तुलसी, नारायण्, सूर्य , चतुर्वेद,
चाक्षुष और कलिसंवरण। इन उपनिषदों के विषयों
से स्पष्ट है कि इनकी रचना के काल तक अवतारवाद के आधार पर सांप्रायिक ईष्टदेवों की
साधना का पर्याप्त प्रचार हो चुका था। इनमें शिव, कृष्ण, राम, गणपति, नृसिंह, हनुमान,
सरस्वति, लक्ष्मी, सीता, राधा, तुलसी आदि देवों की साधना तथा इसकी फलश्रुति पर चर्चा
की गयी है। इनमें से अधिकांश कम से कम डेढ़ हजार वर्ष बाद की रचना है।
हालांकि सूत्र ग्रंथों की रचना के काल तक संन्यासियों के प्रतिरोधी
स्वरूप को कुंद करने के उपाय किये गये। वर्णाश्रम (चार वर्ण साथ चार आश्रम) की समझ
के साथ समझौते के प्रयास किये गये। लेकिन संन्यासियों के बीच से ही कोई न कोई धारा
फूटती चली गयी, जिसने ब्राह्मणवादी वर्चस्व के विरुद्ध प्रतिरोध को जारी रखा। इस प्रतिरोध
के परिणामस्वरूप ही श्रमण कहलाने वाली धाराओं की नीव पड़ी। बौद्ध, जैन और आजीवक-जैसी
धाराएं इनमें काफी शक्तिशाली प्रमाणित हुईं। बुद्ध-महावीर कल में ऐसे दर्जनों संप्रदाय अस्तित्वमान हो चुके थे जिनका लक्ष्य सत्य की तलाश करना था। बौद्ध ग्रंथों में ऐसे ६३ तथा जैन ग्रंथों में ऐसे ३६३ सम्प्रदायों की चर्चा आयी है।
लेकिन इन्हीं प्रतिरोधी प्रयासों के बीच देववादी चिंतन की प्रासंगिकता घटती चली गयी। अंततः शैव, वैष्णव तथा कुछ और आगे के दौर में शाक्त मतों के उद्भव और प्रसार का आधार निर्मित हुआ। हालांकि यह भी ब्रह्मवादी चिंतन का ही नया आयाम था।
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