सृष्टि (Creation) क्या है?
इसका उद्भव कैसे
होता है? इसे
कैसे विनियंत्रित (Regulate)
किया जा सकता
है? इन्हीं प्रश्नों
का उत्तर ढूंढ़ते
हुए भारतीय धार्मिक
धाराओं ने सृजन
प्रक्रिया की व्याख्या
(Analyze)और विश्व (Univers) के
स्वरूप (Nature) को विनियंत्रित
करने वाली पद्धतियों
का विकास किया।
इतिहास पूर्व काल से
ही इन चिंतनधाराओं
ने इन दो
दिशाओं में अपनी
गतिविधियों को केन्द्रित
किया। वेद, उपनिषद,
पुराण, आगम ग्रंथ,
वौद्धों के त्रिपिटक
और जैनियों के
द्वादसांग अपनी-अपनी
दृष्टि से सृजन
प्रक्रिया की ही
व्याख्या करते हैं।
सृष्टि के मूल
में मौजूद आदितत्त्व
(Absolute) की गतिविधियों
को ही इन
ग्रंथों में विष्णु,
शिव, दुर्गा, राम,
कृष्ण, गणेश, बुद्ध और
जिन-जैसे प्रतीकों
की गतिविधियों के
रूप में अभिव्यक्त
किया गया है।
व्याख्या और विणियंत्रण
के इन दो
उद्देश्यों की पूर्ति
के लिए गढ़ी
गयी अवधारणाओं को
उपासकों से आत्मसात
कराने के लिए
अनुष्ठान की (यज्ञ,
पूजा और साधना)
प्रणालियों का विकास
किया गया। दरअसल, ये अनुष्ठान उन
अवधारणाओं की नाटकीय
अभिव्यक्ति मात्र हैं। सृष्टि
के स्वरूप को
विनियंत्रित करने के
लिए उन अवधारणाओं
पर आधारित आचार
प्रणाली विकसित की गयी
तथा आचार (Ethics),
मूल्य (Values) और मान्यताओं
(Beliefs) के रूप
में इन्हें जन-जीवन में
प्रसारित किया गया।
इन्हीं अवधारणाओं को प्रसार
प्रदान करने के
लिए धर्मतंत्र का
निर्माण किया गया।
धार्मिक प्रक्रिया के पांचों
आयामों (धर्म-दर्शन,
अनुष्ठान, आचार प्रणाली,
धर्मतंत्र और प्रतीक
प्रणाली) को व्याख्या
और विनियंत्रण के
दो उद्देश्यों के
इर्द-गिर्द ही
क्रियाशील पाया जा
सकता है।
लेकिन भारत में धार्मिक
धाराओं का इतिहास
बताता है कि
धामिक धाराएं अपनी
ही अवधारणाओं से
अनुष्ठान प्रणाली के असंबद्ध
होने की समस्या
से ग्रस्त रही
हैं। समाज का
प्रभुत्वशाली हिस्सा अवधारणाओं से
असंबद्ध अनुष्ठान प्रणाली का
उपयोग अपने निहितस्वार्थ
की पूर्ति के
लिए धर्म के
नाम पर करता
रहा है। अठारहवीं
सदी के पहले
तक इस प्रबृत्ति
के विरुद्ध स्वयं
धर्मिक जगत में
ही संघर्ष करने
वाली मजबूत धाराएं
मौजूद रहीं। मगर
विगत दो सौ
वर्षों अजीब साम्य
पैदा कराया गया
है। इस दौर
में धर्म की
सामाजिक भूमिका गौण होती
चली गयी।
भारतीय धार्मिक
धाराओं ने मनुष्य
जाति के सामने
अंधकार से प्रकाश
की ओर चलने,
अज्ञान से ज्ञान
की ओर बढ़ने
तथा इस मरणशील
जीवन को अपने
कार्यों के माध्यम
से अमरता प्रदान
करने (या मृत
से अमृत की
ओर बढ़ने) का
मूल्य प्रस्तुत किया।
इस आदर्श को
साकार करने के
लिए स्वार्थों (या
चित्त की वृत्तियों)
से ऊपर उठ
कर परमसत्य से
एकाकार होने पर
जोर दिया। इसने
स्वार्थ में आकंठ
डूबे सर्जक का
ही चित्रण रावण,
कंश, महिषासुर, शुंभ-निशुंभ-की गतिविधियों
के रूप में
किया। इसने स्वार्थ
की पूर्ति के
लिए की गयी
गतिविधि को अधोगामी
और स्वार्थ से
ऊपर उठे सर्जक
की गतिविधि को
उर्ध्वगामी बताया। हालांकि आगे
चल कर मनुष्य
जाति के एक
हिस्से ने अवधारणाओं
से कटे या
असंबद्ध अनुष्ठान का उपयोग
अपने स्वार्थों की
पूर्ति के लिए
धर्म के नाम
पर करने की
भी कोशिश की।
वहीं दूसरे हिस्से
ने इस प्रकार
के कृत्यों से
असहमति जताते हुए अवधारणाओं
से अनुष्ठान की
संबद्धता पर जोर
दिया। और इसी
विचारधारात्मक संघर्ष के क्रम
में सामाजिक बदलाव
के बड़े मोड़ों
पर नयी धार्मिक
धाराओं या उपधाराओं
ने आकर ग्रहण
किया।
वैदिक चिंतन
परंपरा ने सृष्टि
के मूल में
दिव्यता (Supernatural
quality) को पाया था।
उसकी नजरों में
दिव्यता के मूलतः
तीन आयाम हैं- पृथ्वी (Base), अंतरिक्ष (Horizon) द्युलोक
(Lustrous other world)। फिर
ये तीनों ग्यारह-ग्यारह भागों में
विभक्त हैं। इन्हीं
को उसने तैंतीस
देव प्रतीकों के
रूप में प्रस्तुत
किया। लेकिन बाद
में इस समझ
से असहमत विचारकों
ने पाया कि
दिव्यता तो सृजन
प्रक्रिया के आरंभ
के बहुत बाद
में पैदा होती
है। उसने पाया
कि सृजन प्रक्रिया
दिव्यता के पैदा
होने के बहुत
पहले आरंभ हो
चुकी थी। ऐसे
में सृजन के
मूल में परमता
को देखा गया।
उपनिषदों में उसी
परम तत्त्व की
व्याख्या अलग-अलग
ढंग से की
गयी। आगे चल
कर बुद्धत्व और
जिनत्व को भी
सृजन प्रक्रिया के
मूल में देखा
गया। शैव, वैष्णव,
शाक्त, बौद्ध और जैन
चिंतनधाराएं, और फिर
इनकी उपधाराएं सृजन
प्रक्रिया की ही
व्याख्या ही अपने-अपने ढंग
से करती हैं।
सृष्टि के मूल
में मौजूद उस
आदि तत्व को
ही शिव, विष्णु,
शक्ति, राम, कृष्ण,
बुद्ध और जिन
के रूप में
देखती हैं। सृजन
प्रक्रिया के अलग-अलग पड़ावों
पर अभिव्यक्त होने
वाले इस परमतत्त्व
के अलग-अलग
रूपों को इन
प्रतीकों के रूप
में प्रस्तुत करती
हैं। सृजन प्रक्रिया
की व्याख्या के
लिए गढ़ी गयी
अवधारणाओं को ही
मानवीकरण की प्रक्रिया
में मिथकों और
कथाओं के रूप
में प्रस्तुत किया
गया। हालांकि कालांतर
में ये प्रतीक
भी अपनी अवधारणाओं
से असंबद्ध होते
गये। असंबद्ध प्रतीकों
ने अपना अर्थ
खो दिया। इन
प्रतीकों की पूजा
का वास्तविक अर्थ
धुंधलके में कहीं
गुम हो गया।
वर्णवादी समाज व्यवस्था
की शुरुआत के
साथ उत्तर वैदिक
काल में आरंभ
हुए विचारधारात्मक संघर्ष
के क्रम में
ब्रह्मचिंतन पर जोर
देने वाले संन्यासियों
ने समानांन्तर धार्मिक
संरचणा को आकार
देने में अगुआ
भूमिका निभायी। संन्यास ग्रहण
करने के लिए
बनाये गये नियमों
के संग्रह, वैखानससूत्र
से पता चलता
है कि इसने
वर्चस्व के मुकावले
परित्याग का आदर्श
प्रस्तुत किया। सृष्टि के
स्वरूप पर प्रकाश
डालने वाली नयी
प्रणालियों के विकास
के लिए दुर्गम
जंगलों में तपस्या
या साधना की।
मनुष्य मात्र को एक
मान कर विश्व
के स्वरूप की
व्याख्या के प्रयास
किये। भारतीय जनजीवन
को प्रभावित करने
वाली सभी की
सभी धार्मिक धाराएं
- शैव, वैष्णव, शाक्त, बौद्ध
और जैन - गैरवर्णवादियों
या संन्यासियों के
प्रयास से पैदा
हुई हैं। हालांकि
भारतीय धार्मिक धाराओं के
इतिहास में ऐसे
भी मोड़ आये,
जब वर्ण और
आश्रम की दो
समानांतर धाराओं को एक
साथ जोड़ कर
प्रभावहीन बनाने की कोशिशें भी हुईं। लेकिन
संन्यासियों के बीच
से ही कोई
न कोई नयी
धारा फूटती चली
गयी। उसने संन्यासियों
द्वारा शुरु किये
गये संघर्ष को
जारी रखा। इस
क्रम में संन्यासियों
द्वारा जंगलों में कायम
आश्रम नये ज्ञान
से ब्रह्मचारियों को
लैस करने वाले
केन्द्र प्रमाणित हुए। आश्रमों
के रूप में
आरंभ हुए इन
शिक्षा केन्द्रों ने आगे
चल कर नालंदा,
विक्रमशिला, तक्षशिला, उदंतपुरी-जैसे
विश्वविख्यात शिक्षा केन्द्रों के
लिए आधारशिला का
कार्य किया। इस
प्रकार धर्म ने
- समाज को वैचारिक
दिशा देने तथा
विकासात्मक गतिविधियों में भी
सीधी सहभागिता - दोनों
ही स्तरों पर
अतुलनीय भूमिका का निर्वाह
किया।
मोक्ष, निर्वाण
और मुक्ति का
आदर्श मनुष्य जाति
के सामने प्रस्तुत
कर धर्म ने
सृष्टि के वास्तविक
स्वरूप को समझने
के लिए सारे
आंतरिक और वाह्य
पूर्वाग्रहों से मुक्त
मनुष्य के निर्माण
के अभियान की
शुरुआत की। इसी
क्रम में उसने
चित्त की बृत्तियों
के सकारात्मक और
नकारात्मक प्रभावों से निरपेक्षता
को मोक्ष और
जड़ विचारधारात्मक पूर्वाग्रहों
(चाहे वह धार्मिक-दार्शनिक चिंतन से
उद्भूत विचारधारात्मक पूर्वाग्रह ही क्यों
न हो) से
निरपेक्षता को निर्वाण
का नाम दिया।
आगे चल कर
उसने पूर्ण शरणागति
के आदर्श के
सहारे परमसत्य के
प्रति हर हाल
में प्रतिबद्धता पर
जोर दिया। भारत
के इतिहास में
सामाजिक बदलाव वाले हर
मोड़ पर मोक्ष,
निर्वाण या मुक्ति
पाये हुए मनुष्य
को तत्कालीन समाज
में परिवर्तन के
लिए चल रहे
संघर्ष की अगली
कतार में देखा
जा सकता है।
उत्तर वैदिक काल
में उपनिषदों की
रचना में निमग्न
संन्यासियों, बुद्ध-महावीर काल
की दर्जनों चिंतन
धाराओं, महायानियों, सहजयानी-बज्रयानी
दार्शनिकों, नाथ योगियों
और भक्ति आंदोलन
के दौर के
संप्रदायों और पंथों
को इसके उदाहरण
के रूप में
देखा जा सकता
है।
चिंतन की
उक्त शास्त्रीय परंपराओं
के गर्भ से
ही गायन, नर्तन,
चित्रांकण, लोकप्रिय साहित्य के
सृजन की परंपराएं
उपजीं। और असंबद्धता
के विरुद्ध वैचारिक
संघर्ष वाले दौर
में इन लोक
परंपराओं ने नयी
शास्त्रीय परंपराओं के विकास
में महत्त्वपूर्ण भूमिका
निभायी। यह क्रम
इतिहास के विभिन्न
युगों में निरंतर
चलता रहा है।
अपने प्रश्नों के
उत्तर के लिए
अलारकलाम और उद्दकरामपुत्र-जैसे शास्त्रीय
चिंतकों की असमर्थता
के बाद भटकते
सिद्धार्थ को सुजाता
के गायन से
मिली दिशा शास्त्रीय
चिंतन को प्रभावित
करने में लोक
की भूमिका को
प्रदर्शित करने वाला
महत्त्वपूर्ण उदाहरण है।
इसतरह, आध्यात्मिकतावादी और भौतिकतावादी
चिंतन के दो
किनारों के बीच
से मानव जीवन
की धारा गतिमान
रही है। अतिभौतिकता
(Hyper
materialism) पर आधारित चिंतन के
दृष्परिणामों से जन-जीवन की
रक्षा में आध्यात्मिकता
या अत्मिक चिंतन
ने निरंतर भूमिका
निभायी है। वहीं,
भौतिकतावादी चिंतन ने अतिआध्यात्मिकता
(Hyper
spiritualism) के प्रसार पर लगाम
लगाया। लेकिन अपने निहितस्वार्थ
को पूरा करने
के लिए इस
द्वन्द्व को निष्प्रभावी
बनाने या समाप्त
करने के भी
उपाय किये जाते
रहे हैं। प्राचीन
काल में आध्यात्मिक
चिंतन के क्रांतिकारी
प्रभावों से राजसत्ता
की हिफाजत के
लिए कौटिल्य के
अर्थशास्त्र में कई
व्यवस्थाएं दी गयीं।
शूद्रों के गांवों
में संन्यासी, भांट
और नट के
प्रवेश पर रोक,
धर्म के नाम
पर अंधविश्वास के
प्रसार के लिए
राजकोष के उपयोग,
समाजिक उत्सवों में संन्यासियों
को सम्मानजनक स्थान
न देने की
सलाह तथा युवावस्था
में संन्यास ग्रहण
करने वाले संन्यासी
की गिरफ्तारी-जैसे
प्रावधान इनमें प्रमुख हैं।
क्या संन्यासियों की
परिवर्तनकारी भूमिका को कुंद
करने के लिए
ही ये व्यवस्थाएं
नहीं दी गयी
थीं? चार्वाकवादी चिंतन
भी प्रचीन काल
में अतिभौतिकता को
महिमामंडित करने वाला
ही उदाहरण है।
आधुनिक काल
में समाजशास्त्री आॅगस्ट
काम्टे ने धर्म
को अंधविश्वास करार
दिया। अपने इस
प्रहार के माध्यम
से उसने अतिभौतिकता
के (जिसका तत्कालीन
रूप पूंजीवाद के
रूप में आकार
ले रहा था)
निर्वाध प्रसार के लिए
मार्ग प्रशस्त किया।
समाजशास्त्र की पुस्तकों
में भले ही
इस समझ को
चुनौती दी जा
चुकी हो, लेकिन
काॅम्टेवादी चिंतन के प्रभाव
को आधुनिक शिक्षा
के माध्यम से
जन जीवन में
बरकरार रखा गया
है। इस प्रक्रिया
में धर्म को
इतिहास के कूड़ेदान
में डाल दिया
गया। वह दो
सौ सालों से
कूड़ेदान में पड़ा
कराह रहा है।
वहीं, अतिभौतिकता (पुरानी
मान्यताओं के हिसाब
से चार्वाकवाद और
आधुनिक अर्थों में पूंजीवाद
और बाजारवादके रूप
में) और अतिआध्यात्मिकता
(अपनी ही अवधारणा
से असंबद्ध अनुष्ठान
या अंधविष्वास) पूरे
उफान पर है।
वैचारिक स्तर पर
इसे नियंत्रित करने
वाली अधिरचना क्या
आज अनुपस्थित नहीं
है? क्या अपनी
ही अवधारणा से
असंबद्ध अनुष्ठान प्रणाली को
धर्म के नाम
पर आज बाजार
की वस्तु के
रूप में बेचा
नहीं जा रहा
है? ‘जब-जब
होंहिं धरम की
हानि, बाढ़हिं असुर,
अधम, अभिमानी’कह कर
गोस्वामी तुलसीदास ने क्या
इसी अवस्था की
ओर ध्यान नहीं
दिलाया है? ‘यदा-यदाहि धर्मस्य ग्लानिर
भवति भारत’कह कर
गीताकार क्या इसी
अवस्था की ओर
संकेत नहीं कर
रहा? क्या इसी
का फल नहीं
है कि समाज
में अनाचार, दुराचार,
भ्रष्टाचार और संवेदनशून्यता
को बढ़ावा मिल
रहा है?
मनुष्य को मनुष्य बनाये रखने वाला एकमात्र उपाय
धर्म है. इसके अभाव में वह सिर्फ रावण, कंश, सुम्भ-निसुम्भ या महिसासुर बन सकता है.
धर्म विहीन मनुष्य ने पृथ्वी को जीवों के रहने लायक नहीं रहने दिया है. तभी तो स्टीफन
हॉकिंस को कहना पड़ा है कि पचास साल बाद पृथ्वी जीवों के रहने लायक नहीं रह जाएगी. कभी
सबसे बड़े त्यागी को सबसे बड़ा संत मन जाता था. आज के धर्मगुरु अरबपति होने पर गर्ब महसूस
करते हैं. पहचान की राजनीति का धर्म से कुछ भी लेना-देना है क्या? फिर राम-रहीम पर
शोर मचाने का कोई तुक रह जाता है? कभी किसी घटना के मूल्यांकन का आधार धर्म बनता था.
आज इस पर चर्चा होती है कि समाज के लिए धर्म कितना जरुरी है! इस उलटी गिनती का क्या
कारण है? क्या यह सही नहीं है कि धरती
जीवों के रहने लायक तभी रह सकेगी जब धर्म बचेगा? -पुरुषोत्तम
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ReplyDeleteधर्म का अर्थ जो धारण करने योग्य हो,धर्म तो मानव द्वारा रचित अधिरचना (न्याय विवाह धर्म ) हैं तो जो आज धारण करने योग्य है क्या वो धर्म नहीं ?
ReplyDeleteरही बात धनकुबेरो का धर्म पर कब्ज़ा करने जा तो 10 साल में एक बदलाव आया है जब केवल और केवल पैसा ही पहचाना जा रहा है तब इस स्थिति में धर्म गुरु और जिन्हें आपने कहा वो प्रवचन कर्ता के सामने भी समस्या हैं की वो मान के लिये धन की उपेक्षा न करे अब धन कितना उपयोग से जयदा या कम आप अगर किसी सामान्य हिन्दू जन से यह पूछेंगे कि वो कितने भगवान् में विश्वाश रखता है तो कुछ कहेंगे तीन, कुछ कहेंगे हज़ारों और कुछ कहेंगे तैतीस करोड़ (330 million). लेकिन वहीँ अगर यही सवाल किसी पढ़े-लिखे (हिन्दू धर्म के ज्ञाता, धार्मिक रूप से) हिन्दू जन से पूछेंगे तो उसका जवाब होगा; ईश्वर केवल एक ही है, और वह एक ईश्वर में ही विश्वास रखता है.
उदाहरण में ये सब बतयेगा
उपनिषद (UPANISHAD)
छन्दोग्य-उपनिषद्, अध्याय 6, भाग 2, श्लोक 1:
“एकम् एवाद्वितियम” अर्थात 'वह केवल एक ही है'
श्वेताश्वतारा उपनिषद्, अध्याय 4, श्लोक 9:
"नाकस्या कस्किज जनिता न काधिपः" अर्थात "उसका न कोई माँ-बाप है न ही खुदा".
श्वेताश्वतारा उपनिषद्, अध्याय 4, श्लोक 19:
"न तस्य प्रतिमा अस्ति" अर्थात "उसकी कोई छवि (कोई पिक्चर,कोई फोटो, कोई मूर्ति) नहीं हो सकती".
श्वेताश्वतारा उपनिषद्, अध्याय 4, श्लोक 20:
"न सम्द्रसे तिस्थति रूपम् अस्य, न कक्सुसा पश्यति कस कनैनम" अर्थात "उसे कोई देख नहीं सकता, उसको किसी की भी आँखों से देखा नहीं जा सकता".
भगवद गीता (BHAGWAD GEETA)
भगवद गीता हिन्दू धर्म में सबसे ज्यादा पवित्र और मान्य धार्मिक ग्रन्थ है.
"....जो सांसारिक इच्छाओं के गुलाम हैं उन्होंने अपने लिए ईश्वर के अतिरिक्त झूठे उपास्य बना लिए है..." (भगवद गीता 7:20)
"वो जो मुझे जानते हैं कि मैं ही हूँ, जो अजन्मा हूँ, मैं ही हूँ जिसकी कोई शुरुआत नहीं, और सारे जहाँ का मालिक हूँ." (भगवद गीता 10:3)
यजुर्वेद (YAJURVEDA)
वेद हिन्दू धर्म की सबसे प्राचीन किताबें हैं. ये मुख्यतया चार हैं: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद.
यजुर्वेद, अध्याय 32, श्लोक 3:
"न तस्य प्रतिमा अस्ति" अर्थात "उसकी कोई छवि (कोई पिक्चर,कोई फोटो, कोई मूर्ति) नहीं हो सकती."
इसी श्लोक में आगे लिखा है; वही है जिसे किसी ने पैदा नहीं किया, और वही पूजा के लायक़ है.
यजुर्वेद, अध्याय 40, श्लोक 8:
"वह शरीर-विहीन है और शुद्ध है"
यजुर्वेद, अध्याय 40, श्लोक 9:
"अन्धात्मा प्रविशन्ति ये अस्संभुती मुपस्ते" अर्थात "वे अन्धकार में हैं और गुनाहगार हैं, जो प्राकृतिक वस्तुओं को पूजते हैं"
अब इन संकटो से वचने के लिये आम जन अपने से ज्ञानी पुरुषो को मान लेता है ये जाने बिना की कौन उनका भला कर रहा कौन उनका उपयोग।
सुन्दर प्रयास
ReplyDeleteGood job. Congratulations Purushottamjee!
ReplyDeleteI will come back with my comment on it after second reading.
शूद्र चिंतनधारा
ReplyDeleteपुरुषोत्तम जी के आलेख में कुछ विश्लेषण तो नए और मौलिक हैं लेकिन धर्म और चिंतनधारा का सूत्रीकरण पुराना है। ब्राह्मण और श्रमण चिंतन धारा की ही चर्चा है। इन दोनों में जो भेद है, उसका विश्लेषण पहले भी किया गया है, लेकिन जो एक मूलभूत एकता है, उस पर ध्यान इस आलेख में भी नहीं दिया गया है। सच तो यह है कि ये सभी धर्म या चिंतन धाराएं परजीवी समाज या समुदायों के चिंतन पर आधारित है और विकसित हुई है। इसके विपरीत उत्पादक समाज या समुदाय के चिंतन की उपेक्षा की गयी है।
अब तो यह भ्रम टूट जाना चाहिए कि जो उत्पादक है, जिन्हें वर्ण व्यवस्था में शूद्र कहा गया, वे कुछ सोचते-समझते नहीं थे और ज्ञान की धाराएं केवल भीख मंगानें वालों, अन्यथा लूट-छीन कर ऐश करने वालों के मस्तिष्क में ही प्रवाहित होती हैं। सच तो यह है कि प्राचीन कल का सारा श्रेष्ठ और समाज के विकास के लिए जरुरी चिंतन शूद्रों ने ही किया है।
सच तो यह भी है कि प्राचीन काल से ही शूद्र चिंतकों के विचार अधिक भौतिकवादी और जीवन के करीव रहे है। समाज पर उनका गहरा प्रभाव रहा है, लेकिन उनका दस्तवजीकरण नहीं हुआ। उनके अनुयायिओं ने अपने आचरण में तो इसे अपनाया, लेकिन अक्षरज्ञान के अभाव में इसे लिपिबद्ध नहीं कर सके। ऐसे चिंतकों की चर्चा यदि ब्राह्मण या श्रमण साहित्य में मिलता है तो केवल विरोध के लिए।
आज जरुरी है की ब्राह्मण या श्रमण साहित्य में की गयी नकारात्मक चर्चाओं और ग्रामीण जीवन व्यवहारों में सकारात्मक उपस्थितियों के आधार पर शूद्र चिंतनधारा को पुनर्निर्मित किया जाये। केवल तभी हम भारतीय समाज में सकारात्मक परिवर्तन को गति दे सकते है। यही ब्राह्मणवाद के विरुद्ध ठोस आधार होगा। बाकी एक समय की विरोधी परम्पराएं तो उसमें आत्मसात हो चुकी हैं। क्या यह विडम्वना नहीं है कि जैन अमितशाह और गोरखपंथी आदित्यनाथ, आज ब्राह्मणवादी विचारधारा के सबसे बड़े उन्नायकों में हैं।
बहरहाल पुरुषोत्तम जी की इस स्थापना से सहमत हुआ जा सकता है की अतिभौतिकता और अतिआध्यात्मिकता, दोनों ही हमारे सामाजिक विकास में बाधक है। समाज को सही दिशा देने के लिए इनमें संतुलन जरुरी है। लेकिन शूद्र चिंतन को केंद्र में लाये बगैर संतुलन संभव नहीं है। तभी हम धर्म को साम्प्रदायिकता से अलग कर सकेंगे और आधुनिक मूल्यों द्वारा संचालित एक सेकुलर समाज बना सकेंगे।
अंत में मैं शूद्र चिंतनधारा के मूल्य मन की पवित्रता पर अपनी एक टिप्पणी इसके साथ जोड़ रहा हूँ। ऐसे दर्जनों विचार है जो आज जीवनमूल्य बन चुके है और प्रतिगामी ब्राह्मणवादी चिंतन उनके सामने पराजित हो चुका है।
उपासना की दो पद्धतियां
भारतीय समाज की संस्कृति और चिंतन की दो धाराओं पर मेरा ध्यान गया था और राजन्यों की एक तीसरी धारा के समय-समय पर अलग दिखने, लेकिन अंततः वर्चस्वशाली ब्राह्मणवादी धारा में ही समाहित हो जाने को भी कई बार कई तरह से महसूस किया था लेकिन नास्तिक होने के चलते उपासना की दो पद्धतियों की ओर मेरा ध्यान कभी नहीं गया।
भक्ति आंदोलन की सबसे बड़ी विशेषता शायद यही थी कि इसने उपासना की ब्राह्मण-पद्धति को न केवल चुनौती दी बल्कि लगभग ध्वस्त कर दिया। भले ही तुलसीदास ने ब्राह्मणवादी मूल्यों को फिर से स्थापित करने की कोशिश की और वर्ण व्यवस्था को महिमा-मंडित करने का भी प्रयत्न किया लेकिन कबीर और रैदास-जैसे संत कवियों द्वारा स्थापित नये जीवन मूल्यों को वे ध्वस्त नहीं कर सके बल्कि चुनौती तक नहीं दे सके। ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’-रैदास के इस कथन की आज भी पूरे भारतीय समाज में मान्यता है जबकि तुलसी की ‘ढ़ोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब तड़न के अधिकारी’ या पूजिये विप्र शील गुन हीना’-जैसी उक्तियों पर हर कोई सवाल उठाता है।
भक्त कवियों, खास कर पहले दौर के निर्गुण संत कवियों ने पूजा-पाठ और कर्मकांड की जगह मन की पवित्रता को श्रेष्ठ और निर्णयक बताया। और उसके बाद के समाज ने अंतिम रूप से स्वीकार कर लिया।
जैसा कि शुरू में कहा गया है, सगुण भक्त कवियों और संतों, विशेष रूप से तुलसीदास ने अपने स्तर से भक्ति आंदोलन का ब्राह्मणीकरण कर दिया। उसके बाद यह भारत के इतिहास का सबसे बड़ा सामाजिक आंदोलन कई तरह के गत्यावरोध में फंस गया। लेकिन भक्ति के लिए मन की पवित्रता और निष्ठा की जरूरत को तुलसी सहित सभी ब्राह्मणवादी संतों को भी स्वीकार करना पड़ा, क्यों कि समाज, विधिविधानों और कर्मकांड़ों से संचालित होने वाले अनुष्ठानों के वर्चस्व को अस्वीकार करके आगे निकल गया था। भले ही सत्यनारायण का कथावाचन चलता रहा, आज भी चल रहा है, लेकिन यजमान भी अब विधानों से अधिक भावनाओं को महत्व देते हैं। अर्थात् भावना की पवित्रता का शूद्र सिद्धांत आज विधिविधान और कर्मकांड के ब्राह्मण सिद्धांत पर निर्णायक रूप से प्रभावी हो गया है। यह शूद्र या कहिए ब्राह्मण विरोधी चिंतनधारा की ऐसी सफलता है, जिसे रेखांकित किया जाना चाहिए।
श्री पुरुषोत्तम लिखित उक्त आलेख में सृजन प्रक्रिया या सृष्टि के मूल में चेतना को बताया गया है। इस क्रम में उन्होंने वेद, उपनिषद, पुराण, आगम एवं त्रिपिटक के उद्धरणों के आधार पर अपनी बात को संपुष्ट किया है। वैदिक चिंतन परंपरा के अनुसार सृजन प्रक्रिया के मूल में अतिप्राकृतिक सत्ता है, ऐसी मान्यता पुरुषोत्तम जी की है। आगे उन्होंने वर्णवादी समाज व्यवस्था की चर्चा की है। वर्णाश्रम को प्राचीन भारतीय जीवन पद्धति का आधार माना गया है। उन्होंने चार पुरुषार्थो में से एक मोक्ष की भी चर्चा की है।
ReplyDeleteआलेख को पढ़ने के क्रम में कुछ प्रश्न मन में उठते हैं। सृजनवाद और विकासवाद, सृष्टि रचना की व्याख्या करने वाली दो समानांतर अवधारणाएं हैं। दार्शनिकों का एक पक्ष सृष्टिवाद को मानता है तो, दूसरा विकासवाद को। समकालीन भारतीय चिंतक श्रीअरविन्द ने सृष्टिवाद और विकासवाद, दोनों का समन्वय किया है। प्रश्न यह उठता है कि पुरुषोत्तमजी का विचार कहाँ टिकता है? वह अपने को सृजनवादी मानते हैं, या विकासवादी, या फिर दोनों। जहाँ तक मेरी समझ बनती है कि वह मन या चेतना को सृष्टि का मूल मानते हैं, तो वह आदर्शवादी बन जाते हैं। भारतीय वांगमय, वेद, उपनिषद और वेदांत, चेतना को सृष्टि के मूल में मानते हैं। प्रश्न उठता है कि लेखक खुद को वेदांत दर्शन से कैसे भिन्न या समानांतर बताएगा? मेरा यह प्रश्न मूलतः दार्शनिक प्रश्न है। सृजनवाद या विकासवाद, या चेतना के स्वरूप पर विचार तात्त्विक प्रश्न है। आलेख में आगे एक दूसरे मुद्दे को चर्चा का विषय बनाया गया है जिसका संबंध हमारी जीवनपद्धति से है। गूढ़ तत्त्विक प्रश्न के साथ-साथ वर्णाश्रम धर्म की व्याख्या कितना न्यायपूर्ण हो सकता है, यह विचारणीय विषय है। इसी क्रम में मोक्ष की भी चर्चा है। आलेख में आधुनिक परिवेश में उठनेवाले प्रश्नों को भी पौराणिक नरेटिव के अंतर्गत व्याख्यायित करने का प्रयास किया गया है।
हालांकि लेखक के प्रयास की सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने इतने सारे विषयों को एक साथ उठाने का प्रयास किया है। लेकिन ऐसी गूढ़ अवधारणाओं की व्याख्या एक छोटे से आलेख में संभव नहीं। इसलिए लेखक को मेरा सुझव होगा कि तात्त्विक और सामाजिक प्रश्नों पर अलग-अलग आलेखों में चर्चा करते हुए अपने विचार रखें, तभी वह विषय के साथ न्याय कर पायेंगे। दर्शन का विद्यार्थी होने के नाते यह सुझाव देना चाहुंगा।
बहुत बढ़िया चिंतन है आपका। बहुत अच्छी व्याख्या के साथ जरूरी सवाल उठाया है आपने। बहुत बधाई और शुभकामनाएं
ReplyDeleteबहुत अच्छा सर। आपने इतिहास को वैज्ञानिक नजरीये से पेश किया। कुछ ऐस सवाल जिसका जबाव देना मुश्किल होगा
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