शिव 

- पुरुषोत्तम -
शून्य का विस्तार उसका शरीर है, तो आकाश  का गोलाकार हिस्सा सिर। आकाश  की विस्तृत नीलिमा उसके फैले-बिखरे केश  हैं, तो अंतरिक्ष ( पृथ्वी और आकाश  के बीच का हिस्सा ) उसका उदर। दसो दिशाएं केयूर और अंगव से विभूषित उसकी दस भुजाएं हैं, तो सूर्य, चंद्र और अग्नि ( ज्ञान, इच्छा और क्रिया शक्ति  भी ) उसके तीन नेत्र। विस्तृत नील शून्य का सबसे सुंदर रत्न चंद्रमा उसका सिरोभूषण है, तो तारागण उसके वक्ष पर चमचमाते हुए हार।  
वेद, ब्राह्मणग्रंथ, आरण्यक, उपनिषद, रामायण, महाभारत, पुराण और आगम ग्रंथों ने भारतीय जन-मन में बसने बाले सबसे लोकप्रिय देवता शिव या शंकर का चित्र कुछ इसी रूप में अंकित किया है। सृजन प्रक्रिया की व्याख्या करने वाली अवधारणा को शिव और इनसे जुड़े प्रतीक आत्मिक, दैविक और भौतिक, तीनों भावों में व्यक्त करते हैं। आत्मिक भाव में ये सृजन के मूल में मौजूद मन के स्वरूप को समझने, इसे अवधारणाबद्ध करने तथा विभिन्न जातीय समूहों के प्रतीकों के आत्मसातीकरण की लंबी प्रक्रिया में निर्मित हुए। 
इन ग्रंथों में मौजूद तथ्यों के आधार पर अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि पौराणिक शिव का आरंभ वैदिक रुद्र के रूप में हुआ होगा। ऋग्वेद में मात्र तीन पूर्ण सूक्त मौजूद हैं जिनमें रुद्र के स्वरूप पर की चर्चा की गयी है। इसके अतिरिक्त, एक सूक्त के पहले छः मंत्र रुद्र की स्तुति में और अंतिम तीन सोम की स्तुति में कहे गये हैं। एक अन्य सूक्त में रुद्र और सोम का साथ-साथ स्तवन किया गया है। कुछ अन्य देवताओं की स्तुति के लिए कहे गये सूक्तों में भी रुद्र का उल्लेख प्रायः किया गया है। इन सूक्तों में रुद्र को ‘गोघ्न’, ‘नृघ्न’, ‘क्षयद्वीर’, ‘कपर्दिन’, ‘दिवोवाराह’, ‘कल्पलीकिन’, ‘महाभिषक’, ‘वृषभ’, ‘मेघपति’, ‘द्विवर्हा’ आदि कह कर पुकारा गया है। ये सूक्त रुद्र की आकृति का स्पष्ट अंकन करते हैं। ऋग्वेद रुद्र को अंतरिक्ष (या विस्तार) के देवता के रूप में देखता है। इसलिए उसकी चर्चा करते वक्त हमेशा आकाश  में मौजूद वस्तुओं का उल्लेख प्रतीक, बिंब, या उपमा के रूप में करता है।    
रुद्र के चित्र के अंकन के लिए घने वादलों के बीच चमकती हुई बिजली, उसकी गर्जना और वर्षा आदि प्रतीकों का  उपयोग होते हुए सामान्य तौर पर होते देखा जा है। इसका वर्ण कभी बभ्रु या भूरा, कभी श्वेत, तो कभी सुनहरा बताया गया है। बिजली की कड़क ही रुद्र का रव है। इसी कारण उसे रुद्र कह कर पुकारा जाता है। रुद्र का अस्त्र उसका घनुष है। इस धनुष से छोड़े गये वाण मनुष्य और पशु, दोनों का संहार करते हैं। इसी कारण उसे ‘गोघ्न’ (गाय को मारने वाला), ‘नृघ्न’ (मनुष्य का संहार करने वाला), ‘क्षयद्वीर’ (हानि, ह्रास, अवनति या छीजन पैदा करने वाला) कहा गया। आकश में उमड़-घुमड़ रही जटा-जूट जैसी दिखने वाली मेघमाला के बीच से कड़कती बिजली कपर्दिन (जटा-जूटधारी) नाम को ही सार्थक करती है। काले मेघों के बीच कड़कते समय वाराह की तरह दिखने वाली बिजली की उपमा लेते हुए ही उसे ‘दिवोवाराह’ कहा गया है। वह दहकने-जलने वाला या ‘कल्पलिकिन्’ तो है ही।
इन क्रूर रूपों के साथ ही रुद्र के सौम्य रूप भी हैं। सौम्य रूप में उसे ‘वृषभ’ और ‘महाभिषक’ कहा गया है। सामान्य तौर पर वृषभ सांढ़ को कहा जाता है। रुद्र को दी गयी यह उपाधि प्रजनन की अत्यधिक शक्ति रखने वाले अर्थ में महत्वपूर्ण है। वर्षाऋतु में पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं में नव-जीवन का संचार होता है। औषधियों की खूब उपज होती है। रुद्र की औषधियाँ व्याधिनाशक हैं। अपने इस रूप में वह उर्वरता का संरक्षक हैं। इसीलिए उससे संतान के लिए प्रार्थना की जाती है। 
अथर्ववेद में रुद्र को कई स्थलों में ‘नील शिखण्डिन’ कहा गया है। ‘नील शिखण्डिन’ अर्थात् गहरे नीले रंग के केशवाला। अथर्ववेद में रुद्र द्वारा  मर्त्य जनों पर प्रहार करने का भी उल्लेख है। एक मंत्र में रुद्र के रथ को काला और भयावह कहा गया है। इस रथ को रक्तवर्ण के घोड़े खींचते है। विनाशकारी रूप पर अथर्ववेद में कुछ अधिक ही जोर है। उनका शर विषधर होता है। इससे व्याधियां फैलती हैं। प्राणिमात्र को उससे डर लगता है। प्रार्थना की जाती है कि वह अपने शर स्तुतिकर्ता की ओर से हटाये रखें। इसका प्रहार उसके शत्रुओं या कृपण लोगों पर करें। एक मंत्र में रुद्र को भीमं राजानम् ( आतंककारी राजा ) और उपहन्तु ( विध्वंसक ) कहा गया है। कुछ मंत्रों में उसके संरक्षण में पशुओं को रखकर रुद्र को प्रसन्न किया गया है। इसी क्रम में रुद्र को पशुपति नाम देते हुए वृद्धि के लिए प्रार्थना की गयी है। 
अथर्ववेद के काल तक रुद्र के अनुचर गणों की चर्चा भी की जाने लगी है। वही संभवतः आगे चलकर दस रुद्र कहलाये। रुद्र के शर अब प्राणिमात्र का सीधा बध नहीं करते। वे व्याधियाँ फैलाते है। इन व्याधियों की चिकित्सा के लिए मंत्र और औषधियाॅं बतायी गयी है। भूत-पिशाच आदि से बचाव के लिए रुद्र को याद किया गया है। अथर्ववेद के वर्णनों से लगता है कि जन-सामान्य में रुद्र की लोकप्रियता बढ़ती गयी है। प्रकोप के आतंक और प्रत्यक्ष शक्ति के कारण रुद्र का उत्कर्ष होता गया है। अथर्ववेद में इसी क्रम में रुद्र को महादेव की उपाधि दी गयी है।   
रुद्र के सौम्य रूप में भी इसी अनुपात में उभार आया है। ठंढ़ी और रोगनाशक औषधियों का आहवान व्याधिनाश के लिए किया गया है। अथर्ववेद में आत्मसातीकरण की उस प्रक्रिया का आरंभ भी जहाँ-तहाँ दिखता है, जिसमें कई अन्य देवताओं का विलयन रुद्र में हो गया। भव और शर्व ऐसे ही दो देवता हैं, जिनका स्वतंत्र रूप से उल्लेख हुआ है। परन्तु कुछ अन्य मंत्रों में भव और शर्व का रुद्र के साथ तादात्म हो गया है, और ये दोनों रुद्र के ही नाम बन गये हैं।  
ऋग्वेद और अथर्ववेद की तुलना में यजुर्वेद के सुक्तों की रचना का काल काफी बाद का है। इस काल तक रुद्र के स्वरूप में भी काफी अन्तर आ चुका है। रुद्र के शर अब पहले से अधिक आतंककारी हो चुके हैं। इन्हें दूर रखने की प्रार्थना रुद्र से की गयी है। रुद्र को अब ‘किवि’ ( ध्वंसक या हानिकार ) और ‘दौर्वात्य’( उच्छंखल आचरण वाला ) भी कहा जाने लगा है। रुद्र को प्रशंसासूचक उपधियां भी दी गयी हैं। उनके धनुष और तरकस को ‘शिव’ कहा गया है। उनसे प्रार्थना की गयी है कि वह अपने भक्तों को अपने भयंकर पथ के बदले सहज पथ पर ले चलें। कभी-कभी रुद्र का स्मरण भिषक रूप में भी करते हुए उनसे स्वास्थ्यप्रद भेषज देने की प्रार्थना की गयी है। संभव है भिषक रूप में उनका संबंध देव-चिकित्सक अश्विनी कुमारों से हुआ, जिन्हें यजुर्वेद में रुद्र के पथ पर चलने वाला बताया गया है।  
कृष्ण तथा शुक्ल यजुर्वेद, दोनों ही में दो ऐसे सुक्त है। जिनमें रुद्र का बिल्कुल नया स्वरूप दिखायी देता है। ये सुक्त हैं- ‘त्रयम्बक होम’ और ‘शतरुद्रीय’। त्रयम्बक होम में रुद्र का पशुपति और भिषक् रूप तो है ही, उन्हें एक स्त्री देवता अम्बिका का भाई बताया गया है। साथ ही उनके विशेष वाहन मूषक की चर्चा है। स्वयं रुद्र को ‘कृत्तिवासाः’ कहा गया है। मृत्यु से मुक्ति और अमरत्व प्राप्ति के लिए उनसे प्रार्थना की गयी है। अन्त में रुद्र का यज्ञभाग उन्हें देते हुए, उनसेे ‘मूजवत’ पर्वत के परे चले जाने की प्रार्थना की गयी है, मानो स्तोत्रकर्ता रुद्र से दूर ही रहना चाहता है। 
यजुर्वेद के सामान्य यज्ञ विधान से पृथक ‘त्रयम्बक होम’ में रुद्र की अर्चना एक भिन्न विधि से करने की व्यवस्था है। ऐसा लगता है कि यजुर्वेेद के सुक्तों के निर्माण काल में एक आर्येतर देवता को रुद्र के प्रतीक में आत्मसात किया जा चुका है। संभव है कि हिमालय में बसने वाली कोई जाति उस देवता को पूजती थी। वह जाति उन्हें कन्दरावासी मानती थी। यह बताना कठिन है कि वह देवता कौन था। लेकिन बाद में महाभारत के किएतार्जुनाथ प्रसंग में शिव का किरातों के साथ संबद्ध होने की कथा मिलती है। ऐसा लगता है कि शायद वह देवता किरातों या वहीं हिमालय में बसने वाली किसी जाति का देवता था। ‘मूजवत’ पर्वत से परे चले जाने का आग्रह इस बात का घोतक है कि उस देवता का निवास उत्तर भारतीय पर्वतों में था। मूषक जैसे धरती के नीचे बिल में रहता है, वैसी ही वह देवता कंदराओं में रहता था। ‘कृत्तिवासाः’ उपाधि सूचित करती है कि वह खाल का वस्त्र पहनने वाला था। देवकथाओं में इस तरह का आत्मसातीकरण कोई असाधारण घटना नहीं है। किसी अन्य जाति पर प्रभुत्व के बाद, खासकर जब वह जातियाँ मिलकर एक हो जाती थीं, तब देवताओं का आत्मसातीकरण अनिवार्य हो जाता था। 
‘शतरुद्रीय स्त्रोत’ और ‘त्रयम्बक होम’ में उपलब्ध सामग्री की ही पूरक है। इस स्त्रोत के मंत्र रुद्र के यजुर्वेदकालीन स्वरूप का भलीभांति परिचय कराते हैं। रुद्र के भयावह वाणों का भय अब भी स्तोत्रकर्ता के मन में है। रुद्र को प्रसन्न रखने के लिए उसकी प्रशंसा की जाती है। लेकिन अब उसे वह, शिव, शिवतर और शंकर के नामों से भी उन्हें संबोधित करता है। ‘नील शिखंडिन’ के विकास के रूप में ‘नीलग्रिव’ नाम भी उन्हें देता है। रुद्र अब भी भिषक्, पशुपति और कपर्दिन हैं।
इस स्तोत्र में रुद्र को अनेक नये नाम दिये गये हैं। गिरिशंत, गिरित्र,  गिरीश, गिरिचर, गिरिशय, बनाणांपति नाम उन्हें पर्वतों से जोड़ते है। क्षेत्रपति उपाधि विभिन्न जातियों या गणों द्वारा समान रूप से उनकी उपासना का संकेत करते हैं। इसी क्रम में ‘स्तेनानां पति’ ( चोरों का अधिराज ), स्तायूनां पति ( ठगों का सरदार ), विकृन्तानां पति ( गलकटों का सरदार ), वंचक ( ठग )-जैसे विचित्र नामों से भी उन्हें संबोधित किया जाता है। 
इस स्त्रोत में ब्रात, व्रातपति, तक्षक, रथकार, कुलाल, कर्मकार, निषाद, घुंजिष्ठ, श्वनि ( कुत्ते पालने वाले ), मृगायु ( व्याध ) आदि गणों का भी वर्णन है। स्तोत्र में सहज भाव से इन सब की चर्चा रुद्र के गणों के रूप में की गयी है। ऐसा लगता है कि ये सारे गण रुद्र को पूजने वालों में से हैं। अनुमान लगाना तर्क संगत है कि उस वक्त तक रुद्र में एक ऐसे देवता को आत्मसात कर लिया गया था, जिसे इन गणों के लोग पूजते थे, यह आर्येतर जातियों के साथ आर्यों के सम्मिश्रण का भी सूचक है। संभव है कि सम्मिश्रण के फलस्वरूप ही इन जातियों में प्रचलित देव अराधना के विशिष्ट रूप रुद्र की आराधनाविधि के अंग बन गये। यही परंपरावादी वर्गों में रुद्र के प्रति विरोध की भावना का आधार भी बनें। 
बाद के काल में ‘त्रिनेत्र’ रुद्र के महत्वपूर्ण नामों में से एक है। यह पौराणिक शिव के स्वरूप का आधार बना। हालांकि इस नाम का उद्गम स्रोत वैदिक साहित्य में कहीं नहीं मिलता। यजुर्वेद में सर्वप्रथम ‘त्रयम्बक’ नाम का उल्लेख हुआ है। बाद के दिनों में यही ‘तीन नेत्रों वाला’ अर्थ में तब्दील हुआ होगा। हालांकि वैदिक साहित्य से इस अर्थ की संगति नहीं बैठती। वैदिक साहित्य में ‘अम्ब’ शब्द पिता के अर्थ में उपयोग में आया है। इस शब्द का अर्थ होना चाहिए ‘तीन पिता वाला’, वैदिक देवताओं में मात्र अग्नि हैं जिनके तीन जन्मों का उल्लेख आता है। इनमें कई स्थलों पर रुद्र और अग्नि का तादात्म भी दिखता है। स्पष्ट है कि यह उपाधि अग्नि से चल कर रुद्र के पास आयी। कालान्तर में अम्ब शब्द का अर्थ परिवर्तित हो गया। ‘नेत्र’ के अर्थ में इसके इस्तेमाल के क्रम में ही शिव के तीसरे नेत्र से जुड़ी सारी कथा रची गयी।
ब्राह्मण ग्रंथों के रचना काल तक आते-आते रुद्र के प्रभाव और आतंक दोनों में वृद्धि हो जाती है। उन्हें पशुपति तो कहा जाता है, लेकिन पशुहंता के रूप में भी देखा जाता है। ‘घोर’ और ‘क्रूर’ मानते हुए उनकी प्रार्थना की जाती है। ब्राह्मण ग्रंथों में उत्तर या उत्तर पूर्व को रुद्र का विशेष आवास कहा गया है। इनमें एक जगह तो उन्हें उत्तर दिशा से आने वाला कृष्ण वस्त्रधारी विचित्र पुरुष कह कर संबोधित किया गया है। इस काल में आर्येतर अंशों के मिल जाने के कारण अन्य देवताओं की तुलना में शिव की स्थिति में अन्तर आता गया है। शतपथ ब्राह्मण में वर्णित ‘गवेधुक होम’ में कहा गया है कि जिस समय अन्य देवतागण स्वर्ग चले गये, उस समय रुद्र को साथ नहीं ले गये। इसी कारण उनका नाम ‘त्रास्तव्य’ (जो घर पर ही रहे) पड़ा। एक अन्य स्थान में कहा गया है कि अन्य देवताओं ने प्रजापति को छोड़ दिया, लेकिन रुद्र ने नहीं छोड़ा। ‘गवेधुक होम’ के अंतिम अंश में कहा गया है कि जब देवताओं ने पशुओं को आपस में बाँटा, तब रुद्र का ध्यान नहीं रखा गया। हालांकि उन्हें भय था कि रुद्र के कोप से सृष्टि का विनाश ही न होे जाये, इसलिए उन्हें मूषक समर्पित किया गया। ये सारी बातें बताती हैं कि ब्राह्मण ग्रंथों के जमाने तक रुद्र को अन्य देवताओं से अलग माना जाने लगा था। इस बिलगाव का रुद्र की उपासना के इतिहास में बहुत अधिक महत्व है। ब्राह्मण ग्रंथों के काल में वैदिक कर्मकांड का रूप बहुत विकट हो चुका था। वैदिक देवताओं में से अधिकांश का व्यक्तित्व प्रभाहीन होता गया था। रुद्र के अतिरिक्त विष्णु एक अपवाद थे।
रुद्र पुरोहितों के कर्मकांडों की जकड़न में कैद नहीं थे। इनके उपासकों की संख्या बढ़ती गयी। साथ-साथ इनका महत्व भी बढ़ता गया। आर्यों के प्रगतिशील हिस्से ने भी इन्हें अपनाया। इस प्रकार उस आन्दोलन का सूत्रपात हुआ जब रुद्र की उपासना न सिर्फ जन साधारण में बल्कि आर्य जाति के सबसे उन्नत वर्गों में होने लगी। रुद्र अन्य देवताओं के मुकाबले उँचा उठते हुए ‘महादेव’ ‘देवाधिपति’ और ‘ईशान’ बन गये। ऐतरेय ब्राह्मण में इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण आख्यान है। इसमें सरस्वती के साथ प्रजापति के अगम्य गमन की चर्चा की गयी है। यह कहता है कि प्रजापति के अपराध के लिए प्रजापति को दंड देने के लिए रुद्र को नियुक्त किया गया। इस प्रकार ब्राह्मण ग्रंथों के काल तक रुद्र न सिर्फ महान् देवता, बल्कि कुछ तबके में परमेश्वर माने जाने लगे।  
हालांकि पौराणिक शैव धर्म में कई बाते ऐसी हैं जिन्हें वैदिक रुद्र में नहीं पाया जा सकता। शिव की पूजा ‘लिंग’ रूप में सबसे अधिक लोकप्रिय है। निस्संदेह यह लिंग पूजा का ही परिवर्तित स्वरूप हैं। लेकिन वैदिक रुद्र में इसका मूल नहीं दिखता। महाभारत में स्पष्ट होता है कि लिंगमूर्ति में भगवान शिव के जनेन्द्रीय की ही उपासना होती थी। प्राचीन पुराणों में भी लिंगमूर्ति को जनेन्द्रिय संबंधी ही बताया गया है। इसकी उपासना का कारण बताने के लिए अनेक कहानियाँ रची गयी है। स्पष्ट है कि लिंग पूजा का समावेश भारतीय धर्म में अन्यंत्र से हुआ। यह रुद्र की उपासना से संवद्ध हो गयी। ‘वृषभ’ रूप में अत्याधिक जनन शक्ति रखने वाले अर्थ के कारण लिंग पूजा की अवधारणा को शिव में आत्मसात करने में सहूलियत हुई होगी। लिंग की उपासना का प्राचीन सभ्यता केन्द्रों में बहुत अधिक प्रसार था। पश्चिम एशिया की बेबीलोनी और असीरियाई सभ्यता केन्द्रों में लिंगपूजा की अवधारण पैदा हुई। यह असीरिया में फली-फूली, जहाँ ‘अशेरह’ की उपासना होती थी। देवता बाअल और देवी अश्तोरिथ के संयोग का यह प्रतीक था। यह स्त्री योनी जैसा था, बेबीलोन और निनवेह में भी इस तरह के प्रतीक मिले है। बेबीलोन की देवी इश्तर और उनके पति देवता की उपासना में लिंग की उपासना के चिन्ह मिलते है। मोहजोदड़ों सहित सिंधु घाटी के अन्य स्थानों में मिली छोटी-छोटी स्त्री मूर्तियों को उक्त देवियों की तरह ही देवी माना गया है। पश्चिम एशिया की ही तरह पुरुष देवता की प्रतिमाएँ भी इन स्थलों में पायी गयी है। इन स्थानों में पत्थर के अनेक लिंग प्रतीक भी मिले है। स्पष्ट है कि सिंधुघाटी में लिंग पूजा का प्रसार था। 
पुरातात्विक खुदाईयों में मिले साक्ष्यों से भारत और इन सभ्यता केन्द्रों के बीच घनिष्ठ संबंध की बात अब मान्य हो चुकी है। सिन्धुघाटी की लिंग उपासना पूरी पश्चिम एशिया में फैली अराधना पद्धति का स्पष्टतः हिस्सा थी। ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर ‘शिश्नदेवाः’ अर्थात लिंग को देवता मानने वालों की चर्चा भी है। स्पष्ट है कि सिंधुघाटी के पराजित निवासियों के घुल-मिल जाने में काफी लंबा समय लगा। लेकिन आत्मसातीकरण के फलस्वरूप आर्यों ने सिंधुघाटी के देवताओं को भी आत्मसात किया गया। इसी क्रम में ‘शिश्न देवाः’ भी रुद्र में आत्मसात कर लिये गये। ‘शिश्न देवाः’ के रुद्र में आत्मसातीकरण का आधार भी था। आर्य रुद्र को जीव जंतुओं में उर्वरता के संरक्षक देवता के रूप में देखते थे। लिंग उपासना का वाह्य स्वरूप आत्मसातीकरण के बाद भी बना रहा। लेकिन इस प्रतीक में संग्रहीत कथ्य धीरे-धीरे बदलतेे गये। अंततः भगवान शिव का लिंग उनके निर्गुण स्वरूप का संकेत मात्र बनकर रह गया। 
सिंधुघाटी के पुरुष देवता और वैदिक रुद्र के एकीकरण के साथ आर्य धर्म में एक देवी की उपासना का भी समावेश हो गया। यह देवी उस पुरुष देवता की उपासना के साथ संवद्ध थी। रुद्र का भी ‘अम्बिका’ नाम की देवता के साथ संबंध था। हालांकि वह रुद्र की भगिनी है, लेकिन सिन्धुघाटी की वह देवी रुद्र की पत्नी मानी जाने लगी। हालांकि रुद्र की पत्नी का स्वरूप अन्य देवताओं की पत्नियों की तरह नहीं था। इस देवी का अपेक्षाकृत काफी स्वतंत्र व्यक्तित्व था। वह मात्र रुद्र की पत्नी नहीं थी। वह एक स्वतंत्र देवता भी थी। देवताओं में उसका प्रमुख स्थाना था। वह कभी रुद्र के व्यक्तित्व से अभिभूत नहीं हुई। उसे रुद्र के बराबर का दर्जा प्राप्त था। उसका स्वतंत्र मत भी बना रहा, इस मत के लोग उसी को परम देवता मानते थे। रुद्र की पत्नी के रूप में वह शैव मत का अंतरंग अंग बन गयी तोे स्वतंत्र रूप में इसकी उपासना ने भारत में शाक्त अथवा तांत्रिक मत का सूत्रपात किया। 
सिन्धुघाटी के लोगों का आर्य जाति से सम्मिश्रम का ही परिणाम हुआ कि भारत में मंदिरों और मूर्तियों की स्थापना की जाने लगी। वैदिक धर्म में यह सब नहीं था। देवताओं में रुद्र प्रमुख होते गये। आरण्यकों और उपनिषदों में इसे स्पष्ट देखा जा सकता है कि कर्मकांडों के बन्धनों को तोड़कर वैदिक धार्मिक विचाराधारा में बदलाव लाने में इसी क्रांतिकारी चिंतनधारा या चिंतन पद्धति ने भूमिका निभायी। ‘वृहदारण्यक उपनिषद् में अन्य देवताओं के साथ कई वार रुद्र का भी उल्लेख आता है। ‘श्वेताश्वरतर उपनिषद्’ में रुद्र की चर्चा आयी है। ब्राह्मण ग्रंथों के समय से रुद्र की प्रतिष्ठा में भारी वृद्धि हुई है। अब उन्हें ईश, महेश्वर, शिव और ईशान कहा जाता है। वह मनोन्वेषी योगियों के ध्यान के विषय हैं। उन्हें स्रष्टा, ब्रह्म और परमात्मा माना जाता है। एक श्लोक में उनके प्राचीन उग्र रूप की भी स्मरण किया जाता है। 
उपनिषद् काल के मध्य तक रुद्र के साथ संवद्ध अवधारणा का पूरी तरह उत्कर्ष हो चुका होगा और वह जन सामान्य के देवता ही नहीं बन गये थे, बल्कि आर्यों के प्रगतिशील हिस्से के भी पास पूज्य देवता बन गये थे। श्वेताश्वतर उपनिषद् में उपलब्ध तथ्यों से यही स्पष्ट होता है। दार्शनिक अवधारणा और योग आधारित साधना प्रणाली, दोनों ही आयामों में उपनिषद् के ऋषियों ने रुद्र के साथ विकसित अवधारणा को आत्मिक उन्नति का एक मात्र साधन मान लिया था। 
श्वेताश्वर उपनिषद् में ही वे बीज भी मौजूद हैं, जो बाद में सांख्य विचारधारा का आधार बने। इस उपनिषद् में विश्व की सर्जक शक्ति के रूप में प्रकृति ही पुरुष या परब्रह्म की शक्ति है। विविध रूप विश्व की यह सृष्टि करता है। यह अनादि है। पुरुष की समावर्तिणी है। यह रक्त वर्ण, श्वेत वर्ण और कृष्ण वर्ण की है। यह त्रिगुणमयी है। पुरुष स्वयं स्रष्टा नहीं, यह एक बार प्रकृति को क्रियाशील बनाकर केवल प्रेक्षक के रूप में स्वयं स्थिर रहता है। प्रकृति माया है, पुरुष मायी। जीव भोक्ता है, और प्रकृति द्वारा नियमित है। जीव मुक्त तभी होता है जब प्रकृति या माया के बंधनों से छूट जाता है। इस समझ को श्वेताश्वतर उपनिषद् भी सांख्य की ही संज्ञा देता है। वहं कहता है कि पुरुष को सांख्य और योग द्वारा ही जाना जा सकता है। 
श्वेताश्वतर उपनिषद् का पुरुष रुद्र है, इन्हीं को शिव और ईश कहा गया है। महाभारत और पुराणों में शिव का सांख्य के साथ संबंध स्थापित किया जाना अस्वाभाविक नहीं। सिन्धुघाटी के पुरुष देवता और उसकी सहचर स्त्री देवता को आत्मसात किये जाने के फलस्वरूप ही सांख्य की प्रकृति-पुरुष कल्पना चिंतन में जगह पर सभी इसी तरह ‘केनउपनिषद्’ भी शिव से संवद्ध एक भिन्न सूचना उपलब्ध कराता है। यह कहता है कि देवताओं को ब्रह्म-ज्ञान ‘उमा हैमवती’ नामक एक देवता ने कराया। देवगण पहले जो कुछ नहीं देख सकते थे, वह उन्हें इस देवता ने दिखाया। स्पष्ट है कि उसकी कल्पना देवताओं की चेतन पूजा के रूप में किया गया। इस संदर्भ में यह वैदिक वाग्देवता का विकास मात्र लगता है। इसीकी चर्चा ‘वृहदारण्यक’ और दूसरे उपनिषद् करते है। यह संदर्भ बाद के काल में शिव की पत्नी के रूप में उपस्थित और उसकी उपाधि ‘हैमवती’ का स्वतः ही स्मरण कराता है। शिव की पत्नी उमा को ‘हिमवत्’ की पुत्री माना जाता था। संभव है इस ‘उमा हैमवती’ को दार्शनिक दृष्टिकोण से प्रकृति माना जाता हो और जब रुद्र की सहचरी देवता का भी इसी प्रकृति से आत्मसात् हुआ तो उमा उसका एक नाम हो गया। हैमवती’ का आरंभिक अर्थ सुवर्णवर्णा था। यही बाद के दिनों में हिमवत् अर्थात् हिमालय की पुत्री मानी गयी। इसी रूप में उसका नाम पार्वती भी पड़ा। 
श्वेताश्वतर उपनिषद् ने रुद्र की उपासना का दार्शनिक रूप प्रस्तुत किया। संभव है कि जिस वक्त उपनिषदों में दार्शनिक विचारों का सृजन हो रहा था, उसी वक्त जनसामान्य के बीच ‘भक्ति की परंपरा’ भी आरंभ हो गयी हो। उपनिषदों ने प्राचीन और परंपरागत बहुदेवबाद को जोरदार ढंग से अस्वीकार कर ब्रह्म या परमसत्य की साधना की अवधारणा प्रस्तुत की। कर्मकांडों के चक्कर में प्राचीन देवतागण श्रीहीन हो चुके थे। अब केवल रुद्र और विष्णु की उपासना होने लगी थी। दोनों ही देवताओं के उपासक अपने-अपने आराध्यदेव को परब्रह्म मानने लगे थे। ध्यान, प्रार्थना और भजन नयी उपासना पद्धति के साधन बन गये। इस धारा ने धीरे-धीरे कर्मकांडों पर आधारित पुरानी साधना पद्धति का स्थान ले लिया। अथर्ववेद में भूत पिशाच आदि के प्रभाव से मुक्ति के लिए रुद्र का आहवान किया जाता था। लगता है यही परंपरा बढ़ते-बढ़ते उस स्थल तक पहुँची जब भूत-पिशाच आदि को रुद्र का अनुयायी माना जाने लगा।  
गृहसूत्रों में धर्म सूत्रों की तरह रुद्र की पत्नी और पुत्रों का उल्लेख समान रूप से है। परंतु गृह सूत्रों में पहली दफा देवताओं की मूर्तियों के प्रतिष्ठापन और पूजन का पहली बार उल्लेख मिलता है। बौधायन गृह सूत्र में विष्णु और रुद्र दोनों की स्थापना का विधान है। इसी में देवागार का भी उल्लेख है। पहली बार बौधायन गृह-सूत्र शिवलिंग का भी उल्लेख करता है। हालांकि लिंग का जनेन्द्रिय संबंधी स्वरूप अब तक समाप्त हो चुका था। लिंग की पूजा शिव के प्रतीक के रूप में की जाती थी। गृह सूत्रों में रुद्र की पत्नी की पूजन की विधियाँ भी बतायी गयी हैं। पहली बार इसे दुर्गा नाम दिया गया है। इन्हीं में पहली बार ‘गणेश’ के आदि रूप विनायक का भी जिक्र है। बाद के काल में बौद्ध साहित्य, पाणिनी और कौटिल्य के अर्थशास्र में भी छिट-फुट उनका उल्लेख किया जाता है। रामायण, महाभारत में शैव मत निरंतर होते गये विस्तार का सजीव चित्र मिलता है। 
बौद्ध साहित्य, पाणिनि और कौटिल्य के ग्रंथों में शिव के संबंध में छिटपुट उल्लेख ही मिलते है। बौद्ध ग्रंथ दीर्घनिकाय में शिव और विष्णु दोनों की चर्चा है। त्रिपिटक और जातक कथाओं की स्थिति भी भिन्न नहीं। पाणिनि के अष्टाध्यायी में रुद्र की उपाधियों में भव और शर्व की भी चर्चा है। संस्कृत व्याकरणों के आधार सूत्र को माहेश्वर सूत्र की संज्ञा दी गयी है। इन सूत्रों को भगवान शिव की डमरू से पैदा आवाजों से विकसित माना जाता है। कहने का मतलब यह कि मनुष्य को वाक् शक्ति, शिव से मिली है। यह शिव के स्वरूप के महान उत्कर्ष का सूचक है। पाणिनी ने भक्त और भक्ति शब्द की चर्चा की है। कृष्ण और अर्जुन के भक्तों की भी चर्चा है। स्पष्ट है कि भक्तिवाद इस काल तक पुरानी चीज हो चुकी थी। कौटिल्य का अर्थशास्त्र चैथी सदी ईसा पूर्व का ग्रंथ है। इसमें शिव और अन्य देवताओं के मंदिरों का स्पष्ट उल्लेख है। रामायण और महाभारत में शैव धर्म का काफी विकसित रूप दिखलायी पड़ता है। इन दोनों ग्रंथों का रचना काल काफी लंबा है। इसलिए इन ग्रंथों में शिव उपासना के प्राचीन और अर्वाचीन दोनों रूप इसमें देखे जा सकते है।  
रामायण में रुद्र को, रुद्र नहीं बल्कि शिव कहा जाता है। महादेव, महेश्वर, शंकर, त्रयम्बक आदि नाम अधिक प्रचलित है। रुद्र का क्रूर रूप भी विलीन हो चुका है। रुद्र अब मानवमात्र के कल्याण में लगे रहते है। वे वरदाता हैं। आशुतोष और दयानिधि हैं। उन्हें काफी ऊँचा स्थान प्राप्त है। श्वेताश्वर उपनिषद के काल में आरंभ भक्तिवाद और शिव तथा विष्णु की उपासना के क्रमशः महत्वपूर्ण होते जाने के साथ-साथ अब भक्त रुद्र के भयानक रूप से डरते नहीं। उननिषदों में तो दार्शनिक रूप से रुद्र को परब्रह्म मान ही लिया गया था, भक्तिवाद के विकास के साथ-साथ इस रूप को अत्यधिक प्रसार मिला। प्राचीन वैदिक देव मंडल की जगह अब ‘त्रिदेव’ को प्रमुखता मिलती जा रही थी। रामायण वैष्णव मत को मानने वाला ग्रंथ है। इसमें अपेक्षाकृत विष्णु को अधिक महत्व दिया गया है, किन्तु शिव से संवद्ध प्रसंगों में इसमें भी शिव को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया गया है। देवलोक में भी उनकी उपासना होती है, और संकट की घड़ी में देवतागण सहायता के लिए उनके पास दौड़ते है। 
रामायण में शिव को जो रूप दिखाई देता है उससे दर्शन के प्ररबह्य वाले रूप को लोकप्रिय संस्करण कहा जा सकता है। शिव का योगिक क्रियाओं के साथ संबंध सर्वप्रथम उपनिषदों में दिखता है। लेकिन रामायण में यह और मुखर होे जाता है। शिव की उपासना का सामान्य मार्ग तपश्चर्या ही है। भगीरथ और विश्वमित्र ने उन्हें तपस्या के द्वारा ही प्रसन्न किया था। रामायण, महाभारत, पुराणं सहित विभिन्न ग्रंथों में अब शिव संबंधी आख्यान काफी विकसित रूप में देखने को मिलते है। इनमें से कुछ  वैदिक रुद्र और वेदोत्तर शिव की याद ताजा करने वाली कथाएँ भी है। शिव पहले उत्तर की ओर स्थित पर्वत पर रहते थे, अब वह स्पष्टतः कैलाश पर्वत पर रहते है।
रामायण में शिव के विषपान की कथा, सागर मंथन की बृहत् कथा का एक अंश है। महाभारत में भी यह आती है। इस कथा की उत्पति निःस्संदेह वैदिक रुद्र की ‘नील-ग्रीव, ‘नील-कंठ’ उपाधि से संवद्ध है। इसी तरह ‘गंगावतरण’ और ‘मदन दहन’ पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, आदि से संबंद्ध अनेक कथाएँ शिव से संवद्ध हैं। पौराणिक शिव के रूप में वैदिक रुद्र के रूपांतरण के दौरानं ही शैव मत से संबद्ध अवधारणाओं और इन पर आधारित आख्यानों को आकार दिया गया। इसी यात्रा के क्रम में शिव की पत्नी उमा की चर्चा आयी। और फिर, वह शाक्त मत की देवी के रूप में स्वतंत्र रूप से प्रतिष्ठित हो गयीं। शिव का पुत्र बताये गये गणेश  विघ्न विनाशक देवता के विशिष्ट रूप में स्थापित हो गये। स्वयं शिव को अलग-अलग गुण से संपन्न होने की समझ के तहत अलग-अलग नाम दिये गये।
शंकर का नृत्य ही सृष्टिविधान है, और निवृति प्रलय। शिव की अनुमति से ही सृष्टि-कल्पना का सबसे प्रचंड और  बलशाली काल, सृष्टि को गति प्रदान करता है। यह उसके शरीर पर तुच्छ कीट की तरह रेंगता है। वहीं, सृष्टि को स्थिति या स्थिरता प्रदान करने वाला दिक् उसका लघु कटिवस्त्र है।  


Comments

Popular posts from this blog