शक्ति भाग - 2
शक्ति प्रतिमाएँ
अनंत विश्व
के अंतस्थल में
एक जागृत प्रज्ञामय
पुरुष विद्यमान है।
उस पुरुष की
शक्ति की दो
भंगिमायें हैं। एक
भोगमुखी अथवा अधोगामी
है, तो दूसरी ऊर्ध्वमुखी अथवा मुक्तिगामी।
दक्ष प्रकृति के
सर्जक भोगमुखी शक्ति
को वरण करते
हैं। वहीं हिमालय
प्रकृति के भोगाभिमुख
निःश्रेयस या मुक्तिप्रदाता
के आश्रय में
जीते। नवदुर्गा मोक्षमुखी
हैं तो दसमहाविद्याएं
भोगमुखी। दसमहाविद्या
नवदुर्गा तत्त्व का पूर्वार्द्ध
है।
सृजन के
दौरान शक्ति की
भूमिका का ही
वर्णन नवदुर्गा और
दसमहाविद्या के रूपकों
में किया गया
है। नवदुर्गा और
दसमहाविद्या सर्जक के अन्तर
में रह कर
उसे जगाती है।
दक्ष यज्ञ के
पौराणिक रूपक की
रचना सृजन के
दौरान सक्रिय शक्ति
के विभिन्न रूपों
की व्याख्या के
लिए की गयी
है। सृजन के
दौरान जीव या
पुरुष में अंतर्निहित
शक्तियों को वर्गीकृत
कर प्रस्तुत करने
का प्रयास ही
नवदुर्गा और दसमहाविद्याओं
के रूप में
अभिव्यक्त होता है।
शाक्त चिंतन से
जुड़ी अवधारणाओं को
मानवीकृत रूप में
इन प्रतीकों में
देखा जा सकता
है।
दसमहाविद्या
भोगमुखी शक्ति दस
रूपों में बाँटी
हुई है। दसमहाविद्या
रूप में बाँटी
शक्ति को काली,
तारा, षोड़शी, भुवनेश्वरी,
भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बल्गामुखी,
मातंगी और कमला
कहा जाता है।
काली
काली अर्थात्
काल (समय) की
शक्ति। यह दिग्वसना
या वस्त्ररहित, नृत्यरत
और गतिशील है।
काली के गर्भ
में अनंत जीवों
का भूत, भविष्य
और वर्तमान छिपा
है। यह आदिशक्ति
है। दक्ष सहित
समस्त जीव जगत
की कमना का
बीज इसी में
निहित है। अंधकार
में जैसे कुछ
भी नहीं दिखता,
उसी तरह काली
के गर्भ में
क्या छिपा है,
कोई नहीं जानता।
इसी कारण काली
का वर्ण अंधकार
के समान है
और वह दिग्वसना
है। काल की
ही तरह काली
का भी आदि-अंत नहीं।
वह असीम है।
जीवों के पास
काल के प्रवाह
से त्राण का
कोई उपाय नहीं।
काली के
गर्भ में जीवों
का भूत, भविष्य
और वर्तमान छिपा
है। काली ही
विश्व की बीजाधार
है। इस अनंत
के बीच जीव
के स्वतंत्र संसार
का जो बीज
मौजूद है, वही
तारा है।
तारा
असीम आकाश
के बक्ष पर
जैसे असंख्य ऩक्षत्र
अवस्थित हैं, वैसे
ही काल के
वक्ष पर असंख्य
जीव जगत अवस्थित
है। काल इसी
तारा के प्रभाव
के कारण वार,
तिथि, नक्षत्र के
रूप में विभक्त
हुआ। तारा दिग्वसना
नहीं। वह आवृता,
खर्वाकृति और सृष्टिमुखी
है। जीव बोध
की खंडित चेतना
तारा के कारण
ही उद्भूत होती
है। तारा के
साथ जगत का
उन्मेष होता है।
जीवंत का उन्मेष
तो तारा के
साथ हो गया,
मगर अब तक
जीव नाम-रूप
धारी नहीं हुआ
है। इसी बीच
पैदा होती है,
एक से अनेक
होने की अभिलाषा।
व्यष्टि भाव जीव
को मृत्यु के अधीन ला देता
है। इसी कारण
तारा जलती चिता
के बीच बैठी
है।
षोड़शी
इसी के
साथ जीव ब्रह्मा,
विष्णु, महेश्वर, इंद्र और
सदाशिव को विराजमान
देखता है। इच्छा
का रूप ग्रहण
करते ही इसे
तीन भंगिमा प्राप्त
होती है। इच्छा
की सृष्टि, उसकी
स्थिति और लय
या विनाश को
नियंत्रित करने वाली
दिव्यता को इंद्र
कहते हैं। इच्छा
से सृष्टि की
शुरुआत होती है।
इसके अधिष्ठाता को
ब्रह्मा या मन
कहा जाता है।
स्थिति के अधिष्ठाता
को विष्णु या
प्राण तथा इच्छा
के लय या
अंत के अधिष्ठाता
को महेश्वर कहा
जाता है। यह
इच्छा पांच ज्ञानेन्द्रिय
के बीच पंचतन्मात्र
(रूप, रस, स्पर्श
और गंध) के
रूप में बिखर
जाती है। इसी
से उस सदाशिव
को पंचमुंड कहते
हैं। यहाँ पंचमुंड
का अर्थ पाँच
ज्ञानेन्द्रिय है।
इस पंचमुंड
के आसन के
अधिकार से जिस
दिन जीव वंचित
हुआ, उसी दिन
मुरदे की टटरी
के संग्रह का
प्रयासी हो गया।
मन, प्राण और
ज्ञान की तीन
भंगिमा को ले
कर ही इच्छा
शक्ति रूपवती हुई।
किन्तु, मन, प्राण
और ज्ञान, पाँच
इंद्रियों की सहायता
के बिना, स्थूल
रूप ग्रहण नहीं
कर सकती। इसी
से मनुष्य पंचमुण्डविशिष्ट
और एक शिवमूर्ति
की कल्पना ध्यान
में देख पाता
है। शुद्ध ज्ञान
अर्थात् शिव और
पंचइंद्रिययुक्त ज्ञान अर्थात् सदाशिव।
सोये हुए शिव
हुए द्रष्टा पुरुष
और इनकी कल्पना
हुई शक्ति। सृष्टि,
स्थिति और लय
शक्ति की ही
तीन भंगिमाएं हैं।
इस तरह,
मनुष्य जब अखंड
काल के गर्भ
में था, तब
काली का प्रभाव
था। व्यष्टिभाव में
प्रस्फुटित होने की
अकांक्षा के साथ
शक्ति तारा रूप
में बदल गयीं।
फिर यह अकांक्षा
सृष्टि, स्थिति और लय
के रूप में
स्पंदित हुई। इसी
के साथ पाँच
ज्ञानेद्रिय का उद्भव
हुआ। इस वक्त
की शक्ति को
षोड़शी कहा जाता
है। पंचज्ञानेन्द्रिय की
अकांक्षा के परिपूरण
के लिए उद्भूत
हुई पंचतन्मात्रा। यही
भुवनेश्वरी है।
भुवनेश्वरी
व्यष्टि की इच्छा
से ज्ञानेन्द्रियों की
उत्पत्ति। ज्ञानेद्रियों की अकांक्षा
की पूर्ति के
लिए पंचतन्मात्राओं को
आकार प्राप्त हुआ।
भुवनेश्वरी इस पंचतन्मात्रिक
जगत की अधीश्वरी
हैं। नाम-रूप
के रूप में
स्थूल में जो
परिणत होगा उसकी
रचना भुवनेश्वरी ही
करती हैं। देवता,
स्वर्ग-नरक आदि
की कल्पना इसी
में निहित है।
देवता, यक्ष, किन्नर भूत,
प्रेत, और पितर सूक्ष्म शरीर में
इस भुवनेश्वरी शक्ति
के अन्तःस्थल में
ही अवस्थान करते
हैं। यहाँ व्यष्टि
भाव है किन्तु
वह स्थूल नहीं,
सूक्ष्म पंचतन्मात्राओं में गठित
है। इसके परे
जो शक्ति व्यष्टि
इच्छा को नाम-रूप में
परिणत करती है,
वही भैरवी है।
भैरवी
जीव द्रष्टा,
दृश्य और दर्शन
इस त्रिपुटी भाव
के साथ दृश्य
के भीतर अर्थात्
नाम और रूप
के भीतर अवगाहन
करने लगा। स्त्री,
पुत्र, कन्या, घर-द्वार,
धन-रत्न आदि
कितनी ही वस्तुओं
को जकड़़ कर
पकड़ने लग गया।
अब भी यह
अकांक्षा शेष रही
कि अनेक होऊंगा,
अनेक पाऊंगा। आँख-कान और
मन-प्राण के
होते हुए भी
साध मिटी नहीं।
और भोगमय जगत
में कूद पड़़ा।
क्या परिणाम होगा
इसका विचार नहीं
किया। इस त्रिपुटी
भाव के प्रतीक
के रूप में
भैरवी मूर्ति के
हाथ में त्रिशूल
है। जीवन के ऊर्ध्व और अधोगति
की द्वन्द्वभूमि यहीं
है। इसी से
भैरवी के सिर
पर जटा और
जूट हैं, जो ऊर्ध्व और अधोगति
की प्रतीक हैं।
नाम-रूप के
पीछे भोगों की
अकांक्षा से दौड़़
लगाने की परिणति
का दर्शन छिन्नमस्ता
कराती हैं।
छिन्नमस्ता
नाम-रूपधारी
होने पर काफी
कुछ अघटनीय घटित
होता है। उस
समय मनुष्य अपनी
कामनाओं का दास
हो जाता है।
यह सब छिन्नमस्ता
के प्रभाव में
होता है। इसी
से देवी के
पैर के नीचे
कामना का मूर्तरूप
या चित्ररूप काम
और रति को
दिखाया जाता है।
कमना के अधीन
जीवात्मा। इसी से
उसका स्थान कामिनी
के नीचे है।
धन, जन, काम,
क्रोध, लोभ ओर
मोह के द्वारा
अभिभूत वह परिजनों
को संतुष्ट करने
के लिए, वंश
के मान और
मर्यादा की हिफाजत
के लिए वासना
द्वारा परिचालित हो कर
छल-प्रपंच का
सहारा ले कर
धन का उपार्जन
करने में लगा
रहता है।
परिजनवर्ग को परिपुष्ट
करने के लिए
जीवनीशक्ति के क्षय
का चित्रण छिन्नमस्ता
के रक्तपान के
रूप में किया
जाता है। दाहिने-वायें खड़ी डाकिनी
और वर्णिनी परिजनवर्ग
का ही संकेत
कराती है। स्वयं
छिन्नमस्ता विभ्रांत बुद्धि की
प्रतीक है।
धूमावती
विधवा का वेश,
रूक्षकेश, कंकाल शरीर। भोगों
की अकांक्षा से
नाम-रूप के
पीछे अंधी दौड़
की परिणति यही
है। दुर्भिक्ष, महामारी,
रोग, शोक, दरिद्रता-सी भयावनी
शक्तियाँ उसे कंकाल
में परिणत कर
देती हैं। यह
धूमावती नामक शक्ति
के प्रभाव में
होता है। अन्न,
घर, आत्मीय-बंधु,
सब छूट जाते
हैं। महामोह या
तमोगुणी वृत्तियों से आच्छादित
हो जाती है
आत्मचेतना। अनंतर की कामना
को विमर्दित कर
सारी आसुरी वृत्ति
को छिन्न-भिन्न
कर आत्मचेतना को
जगाती हैं बल्गामुखी ।
बल्गामुखी
इसे पीतांवरा
कह कर भी
पुकारा जाता है।
घूमावती का वीभत्स
रूप त्याग कर,
शत्रु की जिह्वा
को खीचती हुई
मुगदर हाथ में
लिए प्रकट होती
हैं सौम्य बगलामुखी।
तामसिक चेतना को अपने
प्रहार से धूलधूसरित
करतीं तथा अनंतर
की सुप्त चेतना
को जगातीं। इसी
क्रम में अधोगति
से छुटकारा दिलाने
के लिए प्रकट
होती हैं मातंगी,
जो स्नेहमय हृदय
से अपनी भुजाओं
को बढ़ा कर
जीव को अपने
गोद में बिठा
लेती हैं।
मातंगी
हालांकि जीव की
भोग लालसा खत्म
होने का नाम
ही नहीं लेती।
पुण्य के नाम
से तब भी
उन्मत्त जैसा धन
संग्रह करता रहता
है। तृष्णा प्रवल
होती जाती है।
इसके असर में
वह दक्ष होता
जाता है। राजाधिराज
होता जाता है।
अब वह त्रिताप
द्वारा पिसता है। सत्य
की याद नहीं
आती।
श्यामवर्ण,
माथे पर चन्द्रमा,
तीन नेत्र चार
हाथों वाली वह
देवी रत्नसिंहासन पर
आरूढ़ हैं ।
हाथों में दंड,
कृपाण, पाश और
अंकुश धारण किये
हैं । मातंगी
क्रूरों के लिए
भयंकर है ।
कमला
कमला कमल
के दिव्य आसन
पर विराजती है।
चारों ओर चार
मातंग (हाथी) अभिषेक कर
रहे हैं। मातंगी
से एक मातंग
की मदमत्तता सूचित
होती है। यह
चार मातंग के
द्वारा अभिषिक्त होती है।
काम, क्रोध, लोभ
और मद रूपी
चार हाथी मोहग्रस्त
कर मात्सर्य भाव
से उन्मत्त कर
छोड़ता है। इसके
प्रभाव में परिपक्व
दक्ष में परिवर्तित
होता है। ऊपरी
तौर पर देखने
पर यह छिन्नमस्ता
और घूमावती के
प्रभाव से उसे
लाकर सीधे राजसिंहासन
पर बिठा देती
है। जीव समझता
है कि शत्रुओं
को हमने मार
डाला। मैं सर्वशक्तिमान
हूँ। मैं यज्ञ
करुँगा।
इस प्रकार
दक्ष शिवहीन यज्ञ
का अनुष्ठान करता
है। यज्ञध्वंश होता
है। दक्ष यज्ञ
विनाशिनी रूप में
अर्थात् महाघोरा रूप में
कोटि कोटि योगिनी
अविद्या शक्ति से परिवेष्टित
हो कर जीव
को कभी नरश्रेष्ठ
और कभी नराधम
बना कर लीला
करती रहती है।
सोने जैसी कांति
है। चार
विशालकाय हाथी सोने
का अमृतघट लिए
सिंचन कर रहे
हैं । दो
हाथों में सृष्टि-पद्म है
। एक अभय
और एक वर
मुद्रा में है
। किरीट जगमगा
रही है ।
कमर में रेशमी
वस्त्र है ।
वह कमल के
आसन पर विद्यमान
है ।
धूमावती और कमला
एक-दूसरे के
बिल्कुल विपरीत है ।
वह आसुरी है,
यह दिव्या, वह
दरिद्रा है, यह
लक्ष्मी। इस
तरह शक्ति दसमहाविद्या
रूप में जीव
को दश रूपों
में बाँटती है।
आत्मज्ञान रहित दक्ष
चक्रजाल में घूमता
रहता है।
नवदुर्गा
मोक्षमुखी शक्ति नौ
रूपों में विभक्त
है। नवदुर्गा रूप
में इसे शैलपुत्री,
ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता,
कत्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और
सिद्धिदात्री कह कर
पुकारा जाता है।
शैलपुत्री
महामोह से
ग्रस्त पाषाण हृदय हिमालय
के दिल में
यह अविर्भूत होती
हैं। दिल के
अंधेरे में टिमटिमाती
दीप की तरह
वह प्रज्वलित होती
हैं। पाप कर्मों
में रत मनुष्य
के हृदय में
अविर्भूत हो कर
उसे प्रेम के
मार्ग पर चल
पड़ने के लिए
उत्प्रेरित करती हैं।
यह नवदुर्गा का
पहला रुप है।
केन् उपनिषद् की
कथा बताती है
कि उसे सहजता
से नहीं अपनाया
गया।
शैलपुत्री द्विभुज है।
उसके दाहिने हाथ
में त्रिशूल है,
जो सत, रज
और तम - त्रिगुण
का संकेतक है।
वे बायें हाथ
में सृष्टि-पद्म
अर्थात कमल का
फूल लिये हैं।
वह अनंत जनन-सामर्थ्य वाले वृषभ
पर सवार हैं।
ब्रह्मचारिणी
साधक के
हृदय में प्रेम
का, दिव्य चेतना
का झरना बह
चलता है। तब
पाषाण हृदय दिव्य
राज्य को पाने
के लिए चंचल
हो उठता है।
पौराणिक कथाएं बताती
हैं कि शैलपुत्री
को परम्सत्य रूपी
रुद्र से विवाह
का वरदान पाने
के लिए लंबे
काल तक साधना करनी पड़ी।
इस कठोर साधना
के दौरान एक
हजार वर्ष उसने
केवल कंद-मूल
पर निर्वाह किया।
सौ वर्ष साक
पर निर्भर रही।
तीन हजार वर्ष
सूखे बेलपत्र के
सहारे काटे। हजारों
वर्ष उसे निराहार
रहना पड़ा। शैलपुत्री
को इस साधनारात
अवस्था में ब्रह्मचारिणी
कहा जाता है।
निराहार रहने के
कारण ब्रह्माचारिणी को
अपर्णा भी कहा
जाता है।
ब्रह्मचारिणी कीर्ति का
पर्याय श्वेत वस्त्र धारण
किये है। वह
दिव्य ज्योति बिखेर
रही है। साधनारत
होने का संकेत
देने वाला जपमाल
उसके बाये और
कमंडल उसके दाहिने
हाथ में है।
चंद्रघंटा
चंद्रमा मन का
अधिपति है, और
घंटा नाद का।
जो मन और
वाणी को संयत
कर दे, उसे
चंद्रघंटा कहा जाता
है। उस वक्त
चिदाकाश चमक उठता
है, और झंकृत
हो उठती है
अनाहत नाद की
मधुर ध्वनि। शांति
या शीतलता दायक
अर्द्धचन्द्र उसके मस्तक
को सुशोभित करने
लगा है। चन्द्रघंटा
का वर्ण सोने
के समान चमकीला
है। दसों दिशाएं
उसकी दस भुजाएं
हैं। इसमें से
एक में कमल
(सृष्टि प्रतीक पद्म़) और
एक में त्रिशूल
है जो त्रिगुण;
सत्व, रज और
तम को धारण
करने का संकेतक
है। देवी पराक्रमी
सिंह पर सवार
हैं।
कुष्मांडा
ध्याननिष्ठ चंद्रघंटा शांत
और समाहित हो
कर कुष्मांडा नाम
धारण करती हैं।
ऐसी अवस्था में
कोई बाहरी कर्म-चेष्टा नहीं रहती।
भाव, रस और
ज्योति से परिपूर्ण
होता है। जो
हृदय पत्थर था,
घनघोर अंधेरे से
आच्छन्न था वह
दिव्य ज्योति से
उद्भाषित हो उठता
है। बाहरी आकर्षण
के लिए उत्प्रेरित
करने वाले तारकासुर
या महामोह रूपी
गंदले पानी की
जगह प्रज्ञालोक की
अमृतधारा बहने लगती
है। त्रिगुण
(सत्य, रज, तम़)
युक्त जगत उसके
उनके उदर में
स्थित है। उनकी
मंद मुस्कुराहट से
सर्जक शीतलता पा
रहा है। उसकी
चमक सूर्य के
समान है। साधक
में मौजूद तेज
उसीकी छाया है।
देवी की आठ
भुजाएँ हैं। धनुष,
वाण, कमलफूल, अमृत-कलश, संरक्षण
देने वाला चक्र,
बल का पर्याय
गदा और सिद्धि
देनेवाली माला उसके
हाथ में है
। पराक्रम का
पर्याय सिंह उसका
वाहन है ।
स्कंदमाता
ध्यान के दौरान
परम सत्य का
स्पर्श पा कर
साधक अलौकिक बल
से युक्त हो
जाता है। जो
आत्म चेतना शैलपुत्री
के रूप में
उसके हृदय में
जगी थी, यौवनावस्था
में वह परम
सत्य (शिव) के
संसर्ग से एक
पुत्र स्कंद को
जन्म देती है,
जिसके छः मुख
हैैं। पाँचों इन्द्रिय
(आँख, कान, नाक,
जीभ, स्पर्श) तथा
मन परम्सत्य में
रमने लगते हैं।
इस अवस्था में
साधक के मन
से बहुत्वदर्शन, विजातीय
और स्वजातीय भेद-दर्शन की बुद्धि
जाती रहती है।
जो अब तक
तारकासुर या भेद-दृष्टि के असर
में थी, वह
समाप्त हो जाती
है। तारकासुर का
वध हो जाता
है। इसी दशा
में कात्यायनी का
दर्शन होता है।
मत्स्य, लिंग, बाराह, आदि
पुराणों में स्कंद
जन्म में संबद्ध
कथाएं आयी हैं
। देवी इसी
कारण स्कंदमाता कही
जाती है ।
स्कंदमाता रुप में
देवी चार हाथों
वाली है ।
दो हाथों में
सृष्टि-पद्म अर्थात
कमल है और
एक में बालक
स्कंद, चैथी भुजा
वर मुद्रा में
है । देवी
का वर्ण शुभ्र
है । वह
शेर पर सवार
हैं।
कात्यायनी
बहुत में
एक और एक
में बहुतेरे, इस
भेद-अभेद प्रज्ञालोक
में विचरण करते
हुए चिन्मयी कात्यायनी
के दर्शन होते
हैं। नामरूप में
एक चिन्मय सत्ता
को जब देखता
है, तभी स्कंदमाता
को पाता है।
पाँचों इंद्रियाँ और मन
वश में हो
जाते हैं। फिर
तो सृष्टि के
कल्याण के लिए
वह समर्पित हो
जाता है। इसी
ज्ञानमय भूमि में
उसे कात्यायनी का
दर्शन होता है।
ब्रह्मचारिणी,
चंद्रघंटा और कुष्मांडजा
रूप में परम्सत्य
का दर्शन पाकर
चितिशक्ति स्कंदमाता हो जाती
है। षडरिपु (तारकासुर)
के वध के
साथ भोग की
स्पृहा नहीं रहती।
लेकिन अब तक
परम्सत्य में साधक
की स्थिति नहीं
हुई है। यह
जीव चेतना (व्यष्टि
चेतना) की साधना
है। इसीलिए उसे
और ऊपर उठा
ले जाने के
लिए चितिशक्ति
का कात्यायनी रूप
में प्रादुर्भाव होता
है। निष्काम कर्म
और निष्काम प्रेम
अर्थात् मोक्षकामी साधना यहीं
से शुरू होती
है। कत्यायनी दस भुजा
हैं। वह पाँच
ज्ञानेद्रियों और पाँच
कर्मेन्द्रियों अर्थात् दसों इंद्रियों
को परम्सत्य से
जोड़े रहती हैं।
इस स्थिति में
खुद जीवचेतना (व्यष्टिचेतना)
विश्व चेतना से
मिलती रहती है।
यहाँ विराट चेतना
से खुद को
मिला देने की
साधना चलती रहती
है।
कालरात्रि
काल की
सीमा से मुक्त
हुए बिना परम्सत्य
के साथ सदा
के लिए एकमेक
नहीं नहीं हुआ
जा सकता। इसीलिए
कात्यायनी ने काली
का रूप धारण
किया। काली अर्थात्
अभय का वर
देने वाली मुक्तकेशी
कालरात्रि। रात के
अंधरे में जैसे
कुछ भी नहीं
दिखता, वेसे ही
कालरात्रि की कोख
में अनंत जीवों
के अनंत कर्मबीज
होते हुए भी
तबतक नहीं दिखता,
जब तक मुक्तकेशी
काली अभय का
वर नहीं दे
देतीं। हालांकि इस दशा
में पुरुष और
प्रकृति का द्वैत
मौजूद रहता है।
परम्सत्य या शिव
द्रष्टा के रूप
में अविचल स्थिर
और शांत हैं।
उन्हीं की छाती
पर चलता रहता
है काली का
तांडव। तांडव अर्थात सृष्टि,
स्थिति और लय
के अभियान से
भरे चंचल उन्माद
से वह ग्रस्त
रहती हंै। विश्व
के कल्याण के
लिए किये जाने
वाले निष्काम कर्म
में भी चंचलता
बनी रहती है।
महागौरी
सृष्टि, स्थिति और
लय का तांडव
छोड़ काली जिस
दिन सौम्य रूप
में शिव अर्थात्
परम् सत्य के
अंक में जब
खड़ी हो जाती
है, उन्हें महागौरी
कहा जाता है।
चंचलता का नाम
नहीं। कोई कर्म
नहीं, कोई भेद
नहीं। तब रहते
हैं केवल प्रकृति
और पुरुष अर्थात्
अर्द्धनारीश्वर। हालांकि अभेद होते
हुए इनमें कुछ
भेद बना रहता
है। इससे भी
मुक्ति देती हैं
सिद्धिदात्री।
वह गोरी
है ही, उसके
वस्त्र और आभूषण
भी श्वेत हैं
। सृजन शक्ति
के पर्याय वृषभ
पर वह सवार
है । चार
भुजाओं में से
दो वर और
अभय दान कर
रहें हैं। शेष
एक में सत,
रज और तम
रुपी त्रिशूल है
। दूसरे हाथ
में ज्ञान-विज्ञान
के प्रसार का
पर्याय डमरू है।
सिद्धिदात्री
इस स्थिति
में पुरुष और
प्रकृति का भेद
भी समाप्त हो
जाता है। साधक
की यही चरम
और परम गति
है। सृष्टिपद्म उसका
आसन है। तो
चारो भुजाओं में
शंख, चक्र, गदा
और पद्म अर्थात
कमल का फूल
है। शंख ध्वनि
अविद्या का नाश
करती है। वह
संकटों से उवारती
है। यह सृजनधर्मा
भी है। चक्र
शक्ति और संरक्षण
का पर्याय है।
सिद्धिदात्री सभी आठ
प्रकार की सिद्धियां
देती हैं।
इस तरह
शक्ति की भोगमुखी
अथवा अधोगामी और ऊर्ध्वमुखी अथवा मुक्तिगामी
भंगिमाओं का चित्रण
क्रमशः दसमहाविद्या और नवदुर्गा
के विंबों में
किया गया है।
अति सुन्दर शक्ति के तन्त्रोक्त रहस्यों का सरल भाषा में सहज विश्लेषण करती आपकी ज्ञानवर्धक मनरंजक लेखन शक्ति को सादर नमन
ReplyDeleteगुरु देव अत्यन्त धार्मिक महिमा की शुरुआत,
ReplyDeleteसहज रुप में शक्ति की व्याख्या। काली से सिद्धिदात्री तक
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