शक्ति-तीन
सप्तमातृका
शिव (परम
सत्य) राक्षस अंधक
(लोभ-मोह आदि)
पर प्रहार करते।
प्रहार से लगने
वाले घाव से
रक्त टपकता। उस
टपके हुए रक्त
के एक-एक
बूंद से अंधक
का एक-एक
प्रतिरूप खड़ा हो
जाता। युद्ध के
मैदान में अनगिनत
अंधक के आ
जाने से शिव
के लिए युद्ध
कर पाना कठिन
होता गया। चिंतित
देवताओं ने शिव
की सहायता के
लिए अपनी-अपनी
शक्ति को रणक्षेत्र
में भेजा। इन्हीं
शक्तियों को मातृका
कहा जाता है।
ये मातृकाएं अंधक
के रक्त को
भूमि पर गिरने
से रोकती रहीं।
इस तरह प्रतिरूपी
अंधक को युद्ध
के मैदान में
आने से रोका
गया, और इन
मातृकाओं की सहायता
से शिव ने
उस राक्षस पर
विजय पायी।
यह
कथा देवीभागवत पुराण
में आयी है।
देवीभागवत ही सबसे
प्राचीन ग्रंथ है जिससे
सप्तमातृकाओं के बारे
में जानकारी मिलती
है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण
सप्तमातृकाओं के साथ
ही अन्य देवताओं
के चित्रांकन की
विधियों पर प्रकाश डालता है। मार्कण्डेय
पुराण और
दुर्गासप्तशती में
मौजूद एक दूसरी
कथा में रक्तबीज
नामक राक्षस के
साथ भगवती दुर्गा
के युद्ध में
भी मातृकाओं ने
इसी तरह भूमिका
निभायी थी, फलतः
रक्तबीज को खत्म
किया जा सका।
कथा इन साप्तमातृकाओं
का उल्लेख ब्रह्मा
की शक्ति ब्रह्माणी,
महेश्वर (या
शिव) की शक्ति
माहेश्वरी , कुमार (स्कंद) की
शक्ति कौमारी, विष्णु
की शक्ति वैष्णवी,
वाराह की शक्ति
वाराही, इन्द्र की शक्ति
इन्द्राणी तथा चामुंडा
के रूप में
करता है।
सामान्य
तौर पर अध्ययनकर्ता देवीभागवत
पुराण का रचनाकाल
9-14 वीं सदी के
बीच मानते है।
हालांकि कुछ अध्ययनकर्ता
इसका रचना काल छठी
सदी भी मानते
हैं। इस मतभेद
के बीच एक
बात स्पष्ट कि
इस ग्रंथ की
रचना के काल
तक शाक्त चिंतन
को काफी व्यापकता
प्राप्त हो चुकी
थी। देश के
विभिन्न हिस्सों में जन
सामान्य इसे अपना
चुका था। इसे
प्राप्त अपूर्व विस्तार का
प्रभाव था कि
शैव और वैष्णव-जैसी अन्य
चिंतन धाराओं ने
भी शक्ति की
अवधारणा को अपना
लिया। इसी नयी
समझ को देवीभागवत
पुराण की उक्त
कथा में अभिव्यक्ति
मिली है। भारत
और नेपाल के
गाँव-गाँव में
इसी समझ के
अनुरूप सप्तमात्रिकाओं की पूजा
की परंपरा आज
भी मौजूद है।
कुछ इलाकों में,
खास कर नेपाल
में सप्तमातृका की
जगह अष्टमातृकाओं की
पूजा का भी
प्रचलन है। आठवें
देवता नरसिंह हैं,
जिनकी शक्ति को
नरसिंही का नाम
दिया गया है।
वहीं, कुछ इलाकों
में मातृकाओं की
संख्या तो सात
ही मानी जाती
है, लेकिन चामुंडा
की जगह नरसिंहीं
का उल्लेख किया
जाता है।
ब्रह्माणी
देवीभागवत
पुराण के अनुसार
यह ब्रह्मा की
शक्ति है। सृष्टिकर्ता
ब्रह्मा के ही
समान उसके चार
मुख हैं। उसकी
चार भुजाएं हैं।
वह स्वर्ण वर्ण
की है। उसके
पिछले दायें हाथ
में कमल तथा
बायें हाथ में
अक्षमाल है। अगला
दाहिना हाथ अभय
तथा वायां हाथ
वरद मुद्रा में
है।
देवीभागवत
पुराण से भिन्न
विष्णुधर्मोत्तर पुराण उनके छः
भुजाओं का वर्णन
करता है। वायीं
ओर का तीन
में से एक
हाथ वरद मुद्रा
में है, दूसरे
में पुस्तक और
तीसरे में कमंडल
है। वह लाल
कमल पर पलास
बृक्ष के नीचे
बैठी है। वह
पीतांवर धारण किये
है। आभूषणों से
सजी है। उसका
वाहन हंस है।
वैष्णवी
वह
विष्णु की शक्ति
है। कल्पवृक्ष के
नीचे कमल के
आसन पर विराजमान
है। वह कृष्ण
वर्ण की है।
वह पीतांवर धारण
किये है। उसके
मस्तक पर किरीट
मुकुट है। वह
अलंकारों से सजी
है। उसके शरीर
पर वही सारे
अलंकार हैं, जिनसे
विष्णु सजे होते
हैं। उसका वाहन
गरुड़ है। देवी
भागवत पुराण के
अनुसार उसकी चार
भुजाएं हैं। एक
में चक्र और
दूसरे में शंख
धारण किये है।
बाकी की दो
भुजाओं में से
एक अभय तथा
दूसरी वरद मुद्रा
में है।
विष्णु
धर्मोत्तर पुराण इसकी भी
छः भुजाओं की
चर्चा करता है।
एक दाहिनी भुजा
अभय मुद्रा में,
शेष दो में
गदा और पद्म
मौजूद हैं। बायीं
ओर की एक
भुजा वरद मुद्रा
में है, तो
शेष दो में
शंख और चक्र
मौजूद हैं।
माहेश्वरी
माहेश्वरी
को रौद्री या
रुद्राणी भी कहा
जाता है। वह
शिव की शक्ति
है। वह श्वेत
वर्ण की है।
शिव के समान
उसे भी तीसरी
आँख है। देवी
भागवत पुराण उसकी
चार भुजाओं की
चर्चा करता है।
दो भुजाएं अभय
और वरद मुद्रा
में हैं। शेष
दो में त्रिशूल
और अक्षमाल है।
कई स्थलों पर
उसे खप्पड़, कपाल
या सर्प धारण
किये भी वर्णित
किया जाता है।
नन्दी या सांढ़
उसका वाहन है।
वह भुजाओं में
सर्प-कंगन और
सिर पर जटा
मुकुट धारण किये
है।
विष्णुधर्मोत्तर
पुराण माहेश्वरी के
पांच मुखों की
चर्चा करता है।
प्रत्येक मुख में
तीन आँखें हैं।
वहीं प्रत्यक पर
जटा-मुकुट और
अर्द्धचंद्र भी मौजूद
है। वह श्वेत
वर्ण की है।
उसकी छः भुजाएं
हैं। दो भुजाएं
अभय और वरद
मुद्रा में हैं।
शेष चार भुजाओं
में डमरू, शूल,
घंटा और सूत्र
मौजूद है। विष्णुधर्मोत्तर
पुराण भी वाहन
के रूप में
नंदी या सांढ
का ही उल्लेख
करता है।
ऐन्द्री
इसे
इंद्राणी, महेन्द्री या वज्री
भी कहा जाता
है। यह इंद्र
की शक्ति है।
वह गहरे लाल
रंग की है।
वह कल्पवृक्ष के
नीचे बैठी है।
देवीभागवत
पुराण के अनुसार
इंद्राणी की चार
भुजाएं हैं। दो
भुजाएं अभय और
वरद मुद्रा में
हैं, तो शेष
दो में बज्र
और शक्ति मौजूद
है। वह अलंकारों
के साथ-साथ
कीर्ति मुकुट धारण किये
है। हाथी उसका
वाहन है। विष्णुधर्मोत्तर
पुराण इन्द्राणी को
हजारों आंखों वाली बताता
है। वह स्वर्णवर्णा
के है। उसकी
हजारों आँखें और छः
भुजाएं हैं। दो
भुजाएं अभय और
वरद मुद्रा में
हैं, तो शेष
चार भुजाओं में
सूत्र, बज्र, कलश और
पात्र मौजूद हैं।
वाराही
वह
विष्णु के अवतार
वाराह की शक्ति
है। वह मात्रिकाओं
में पांचवीं है।
उसका मुख वाराह
की तरह है।
वह श्याम वर्ण
की है। वह
कल्पवृक्ष के नीचे
विराजमान है और
उसका वाहन हाथी
है। वह सिर
पर करंद मुकुट
धारण किये है।
उसके अन्य अलंकार
मुंगे से निर्मित
हैं। पैरों में
नुपुर है। वह
शक्ति और हल
से युक्त है।
वह वर देने
वाली है। वह
उत्तर दिशा की
अधिष्ठात्री है। उसकी
चर्चा सारंग धनुष,
हल और मूसल
धारण करने वाली
देवी के रूप
में की जाती
हैं। उसे कई
वार धूमावती कह
कर भी पुकारा
जाता है।
वाराही
के बदले यमी
कह कर भी
संबोधित करते हैं।
ये उसे यम
की शक्ति बताते
हैं। कई स्थलों
पर वाराही को
दंड धारण किये
हुए भी चित्रित
किया गया है।
वहीं कई दूसरे
स्थलों पर इसे
हल, अंकुश, बज्र
या खड्ग और
खप्पड़ धारण किये
हुए भी बताया
गया है। उसका
उल्लेख घंटा, चक्र, चामर
और धनुष धारण
करने वाली शक्ति
के रूप में
भी किया गया
है। इन वर्णनों
में उसे वरद
पर आरूढ़ बताया
गया है।
देवीभागवत
पुराण की रक्तबीज
संहार की कथा
में वाराही का
वर्णन आया है।
इसमें उसे प्रेत
पर सवार वाराह
रूप में अपने
दांतों से राक्षसों
लड़ते हुए दिखाया
गया है। विष्णुधर्मोत्तर
पुराण वाराही की
छः भुजाओं का
उल्लेख करता है।
इसकी दो भुजाएं
अभय और वरद
मुद्रा में हैं,
तो बाकी की
चार भुजाओं में
दंड, ढ़ाल, खड्ग
और पाष मौजूद
हैं। बौद्ध तांत्रिक
परंपराओं में वाराही
का उल्लेख बज्र-वाराही या बज्र
योगिनी के रूप
में किया जाता
है।
कौमारी
कौमारी
कार्तिकेय या स्कंद
की शक्ति है।
इसे कुमारी भी
कहा जाता है।
वह अनंत यौवना
है। वह जीवन
में मौजूद अनंत
कामनों की प्रतीक
है। वह हृदय
रूपी गह्वर या
गुफा में विराजमान
है। वह मयूर
पर औदुम्वर या
गूलर के पेंड़
के नीचे बैठी
है। वह पीत
वर्ण की है।
उसके वस्त्र रक्त
वर्ण के हैं।
वह लाल फूलों
की माला धारण
किये है। कौमारी
की चार भुजाएं
हैं। दो भुजाएं
अभय और वरद
मुद्रा में हैं
तो, शेष दो
में शक्ति और
अंकुष मौजूद है।
वह मुकुट से
सुसज्जित है।
विष्णुधर्मोत्तर
पुराण कौमारी के
छः मुखों और
बारह भुजाओं का
उल्लेख करता है।
उसके प्रत्येक मुख
पर तीन नेत्र
हैं। दो भुजाएं
अभय और वरद
मुद्रा में हैं।
शेष चार में
शक्ति, ध्वज, दंड, धनुष,
वाण, घंटा, पद्म,
पत्र और परशु आदि
धारण किये है।
वह करंद-मुकुट
धारण किये है।
चामुंडा
यह
देवी का ही
विध्वंशक रूप है।
इसका वर्ण काली
के समान है।
देवी महात्म बताता
है कि चंड
और मुंड नामक
राक्षसों से युद्ध
के लिए देवी
ने चामुंडा भयावह
रूप धारण किया।
अन्य मातृकाओं से
भिन्न चामुंडा स्वतंत्र
देवी है। कई
इलाकों में इसे
यम की शक्ति
के रूप में
भी देखा जाता
है। इसके स्वरूप
का वर्णन भी
भिन्न-भिन्न प्रकार
से किया जाता
है।
वह
काली है। उसका
मुख विकराल है।
क्रोधाग्नि में जल
रही है। उसकी
जीभ बाहर लटकी
हुई है। भयावह
बाघंवर और मुंडमाल
धारण किये है।
वह शव पर
पैर रखे तथा
तीन मुंडों के
आसन पर विराजमान
है। वह चंड
और मुंड का
सर हाथों में
लिये है। विष्णुधर्मोत्तर
पुराण इसका वर्णन
विकराल मुख, मजबतू
निकली हुई दांत
और पुरुष के
शव पर विराजमान
देवी के रूप
में करता है।
वह दस भुजाओं
वाली है। उसकी
इन दस भुजाओं
में मूसल, कवच,
वाण, धनुष, अंकुश,
खड्ग, खेटक, दंड
और परशु मौजूद
है।
नरसिंही
यह
विष्णु के अवतार
नरसिंह की शक्ति
है। इसका मुख
सिंघ के समान
है। लेकिन उसका
शरीर स्त्री के
समान है। इसके
नखदार पंजे डरावने
हैं। इसकी चार
भुजाएं हैं। मातृकाओं
इसकी अपनी स्वतंत्र
पहचान है। वैष्णव
चिंतन धारा इसे
लक्ष्मी का ही
एक रूप मानती
है। वह सिंह
या शेर पर
सवार है। एक
हाथ में एक
कपाल, दूसरे में
त्रिशूल, तीसरे में डमरू
तथा चैथे में
नागपाश मौजूद
है। देवी महात्म
की कथा के
अनुसार नरसिंही शुंभ-निशुम्भ के साथ युद्ध
में देवी के
साथ शामिल हुई।
-
पुरुषोत्तम
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