देवता और ब्रह्म

- पुरुषोत्तम -
     उसके हजार सिर, हजार आंख और हजार पांव हैं। वह धरती को चारो ओर से सिर्फ घेरे हुए है, बल्कि उसके भी ऊपर दस अंगुल तक है। उस पुरुष से यह विराज उत्पन्न हुआ है, और विराज से यह पुरुष। जो हो चुका है, वह पुरुष है। जो होने वाला है, वह भी पुरुष है। पुरुष अमृत (देवता) का स्वामी है, और उनका भी जो अन्न से बढ़ते हैं।
       ऋग्वेद के दसवें मंडल का पुरुष सूक्त सृष्टि के मूल में देवताओं की जगह पुरुष को देखता है। सूक्त देवताओं को सृष्टि के बाद का बताते हुए पुरुष को सर्वस्रष्टा के रूप में प्रस्तुत करता है। इसी मंडल में देववाद के विकल्प की तलाश में कई अन्य सूक्त भी नजर आते हैं। विश्वकर्मा सूक्त, नासदीय सूक्त और ब्रह्मणस्पति के लिए कहे गये सूक्त में उस स्रष्टा की तलाश की चिंता स्पष्ट दिखलायी पड़ती है। अथर्ववेद इसी सर्वस्रष्टा को ब्रह्म नाम देता है।
    ऋग्वेद और अथर्ववेद की अनेक ऋचाओं से स्पष्ट आभास मिलता है कि देववाद की जगह सृष्टि या सृजन प्रक्रिया की व्याख्या करने वाली नयी अवधारणा की प्रस्तुति की कोशिशें मजबूती से चल रही थीं। ऋग्वैदिक काल के अंत तक वैदिक समाज का संरचनात्मक स्वरूप पूरी तरह बदल चुका था। छोटे-छोटे पशुचारी कबीले अब बसने लगे थे। उनके जीवन में खेती का महत्व बढ़ता जा रहा था। इन कबीलों को एक सूत्र में बांधने का प्रयास चल रहा था। राजा अब क्षेत्रपति बनने की दिशा में बढ़ चला था। पुरोहितों में ब्राह्मण कहलाने वाला एक नया तबका अस्तित्वमान हो चुका था। राजा-ब्राह्मण मोर्चा अपने आर्थिक-राजनीतिक हितों के अनुरूप समाज को एक आकार देने में जुटा था। वर्ण विभाजन की नीव पड़ चुकी थी। सृजन प्रक्रिया की व्याख्या करने वाली पूर्ववर्ती अवधारणा को नाटकीय अभिव्यक्ति देने वाले यज्ञ अपनी ही अवधारणाओं से असंबद्ध होते जा रहे थे। इसी प्रक्रिया में सोमयाग धीरे-धीरे महत्वहीन होता गया। राजसूय, वाजपेय, अवश्मेघ-जैसी यज्ञ प्रधानता पते गए परिवर्तन के इसी दौर में यज्ञ अंततः अवधारणाविहीन अनुष्ठान या कर्मकांड के पर्याय बनते चले गए। 
देववाद का आरंभिक स्वरूप
          ऋग्वेद के पूर्ववर्ती अंशों में देववाद का प्राचीन रूप दिखलायी पड़ता है। आरंभिक वैदिक समाज मनुष्य के प्रत्येक कृत्य के मूल में दिव्यता को देखता था। ऋचाएं इसी को देवता कहती हैं। उनकी मान्यता है कि भूत की क्रियाशीलता इसी पर निर्भर है। निरुक्त के रचयिता यास्क देवताओं कोदीप्त, द्योतित करने वाला और कुछ देने वालाबताते हैं। निरुक्त देवताओं की पहचान उसके कर्मों के आधार पर करता है। ऋग्वेद भी इन्हें बल (सामर्थ्य, प्रवीणता आदि) के रूप में ही दृश्य मानता है। अनंत विश्व में महाप्राण व्याप्त है। इसी का एक अंश जीवन के स्पन्दन का आधार बनता है। जड़ और चेतन, दोनों में प्राण का प्रभुत्व है। भूत मर्त्य है, प्राण अमृत। देवों का आश्रय ही भूतों को जीवन देता है।
    ऋक्, साम और यजुर्वेद की ऋचाएं सृष्टि को तीन लोकों में बांटती है। ऋचाएं इन्हें द्यु, अन्तरिक्ष और पृथ्वी कहती हैं। द्युलोक के प्राण को आदित्य कहा जाता है। अन्तरिक्ष का प्राण वायु है। पृथ्वी के प्राण को अग्नि कहकर पुकारा जाता है। ऋचाएं इन्हीं को क्रमशः आदित्य, रूद्र और वसु भी कहती है। आदित्य, रूद्र और वसु भी अग्नि के ही तीन रूप हैं। अग्नि तीनों लोकों में प्रज्वलित है। इसीलिए इन्हेंतीन भ्रातायात्रेताकहा जाता है। ऋचाएं इन देव-कृत्यों का बखान करती हैं। काम के हिसाब से ही देवताओं को अलग-अलग नाम दिये गये हैं। प्रत्येक कृत्य प्राणाग्नि का प्रज्वलन मात्रा है। इसलिए ज्ञान और कर्म के प्रत्येक आयाम में ऋचाएं अग्नि का दर्शन करती हैं। अग्नि ही वह अमृत देव है, जो मर्त्य भूतों में समाविष्ट है। बल से युक्त अग्नि मर्त्य भूतों में रहनेवाला अतिथि है।



    ऋचाएं प्रत्येक कार्य की ओट में दिव्यता (देव तत्व) को पाती हैं। स्तुति के क्रम में इसी के कार्यो का वर्णन करती है। द्यौस वह पिता है, जिसने सूर्य, आदित्य, अग्नि, इन्द्र, मरुत, अंगिरस और उषा को जन्म दिया है। वह पृथ्वी का पति है। वरुण ने पृथ्वी और आकाश को धारण कर रखा है। वायु वरुण का श्वास है। इसी के विधान से रात में चन्द्रमा चमकता है। सूर्य, द्यौस, मित्र और वरुण का नेत्र है। यह काम करने के लिए उत्प्रेरित करता है। सविता सूर्य की किरणों से भरापूरा है। वह शक्ति प्रदान करता है। विवस्वान मनुष्य का आदिज है। देवताओं का जनक भी यही है। उषा की चमक जान फूंक देती है। वह सूर्य की प्रेयसी और पत्नी है। रुद्र गोघ्न (गाय को मारने वाला) और नृघ्न (मनुष्य का बध करने वाला) है। उसकी कृपा से ओषधियाँ और अन्न खूब उपजती हैं। विष्णु तीन कदमों से पूरे विश्व को नाप लेता है। वह आकाश की आंख है। प्राणाग्नि के प्रज्वलन को बरकरार रखने के लिए सोमपान जरूरी है। प्राण केन्द्र होने के कारण इन्द्र सर्वशक्तिमान है। सोम इसे अत्यधिक प्रिय है अग्नि ही पवमान है। यही वैश्वानर, नराशंस और वृहस्पति है।
   ऋग्वेद कहता है द्यावा-पृथ्वी रूपी माता-पिता के संयोग से ही सृष्टि उत्पन्न हुई है। माता-पिता रूपी दो अरणियों के मंथन से प्राणाग्नि पैदा होती है। योषा-वृषा के बिना जीवन संभव नहीं। वरुण और मित्र के जोड़े की भी समान ही भूमिका है। मित्र की अग्नेयता और वरुण की शीतलता या जलीयता के मिलन का फल ही सृष्टि है। दरअसल ऊष्ण-शीत, मित्र-वरुण, द्यावा-पृथ्वी और योषा-वृषा का संयोग ही सृष्टि का आधार है। इसीलिए, ऋग्वेद अग्नि को जल के गर्भ में पैदा होने वाला और भूत का प्रथमज कहता है। अनन्त विश्व में महाप्राण व्याप्त है। शरीर में जीवन के रूप में यही प्रकट होता है। प्राणाग्नि के स्पंदन का स्रोत सविता देवता है। यजुर्वेद कहता है कि सविता की शक्ति से ही समिन्धन चलता रहता है। प्राण केन्द्र में उपस्थित हो यही अन्य देवों को खींच लाता है। प्राण केन्द्र में रही सविता की शक्ति को सावित्री कहा जाता है। शरीर में प्रतिफलित होने के क्रम में सावित्री की धारा को ही गायत्री कहा जाता है। सवित्री के साथ मिलकर गायत्री के प्रतिफलित होने और गायत्री का वापस लौट कर सावित्री में मिल जाने की प्रक्रिया चलती ही रहती है।
    वैदिक ऋचाएं सृष्टि के उद्भव की प्रक्रिया को ही यज्ञ के रूप में देखती है। यह अग्नि चयन (कामना के जन्म लेने ) के साथ शुरू होता है। जीवन का आरंभ भी यही है। इसलिए अग्नि को सृष्टि का पुरोहित, ऋत्विज और होता कहा जाता है। अग्नि में भूतों का हवन करनेवाला होता है। रयि को आत्मतत्व में परिवर्तित करने वाला भी होता है। अग्नि के प्रज्ज्वलन को जारी रखने में लिए सोम चाहिए। यज्ञ की निरंतरता इसी पर निर्भर है। अग्नि प्राण केन्द्र को ही भष्म कर दे इसलिए सोम जरूरी है। सोम की कामना ही रुदन है। विश्व को इसी कारण रोदसी कहकर पुकारा जाता है। प्राणाग्नि के प्रज्ज्वलन की निरंतरता को बरकरार रखना ही सोमपान के लिए व्याकुलता का कारण है। यज्ञ में कुश विछाकर तीन जगह तीन देवताओं का आह्नान किया जाता है। अग्नि, वायु और आदित्य ही यज्ञ के तीनों देवता हैं। इन्हीं तीन अग्नियों को ऋचाएं त्रेता या तीन भ्राता कहती हैं। द्युलोक की अग्नि को शुचि कहा जाता है। अंतरिक्ष की अग्नि पावक और पृथ्वी की अग्नि पवमान है। जीवन के रूप में अभिव्यक्ति पाने के क्रम में इसी को वैश्वानर और नराशंस कहा जाता है। एक ही अग्नि अनेक रूपों में विभाजित है।
   ऋग्वेद, अर्थवेद, शतपथ ब्राह्मण, तैत्तिरीय संहिता और निरुक्त देवताओं की संख्या तैंतीस बताते हैं। ऋग्वेद इस देव-मंडल को द्यु, अन्तरिक्ष और जल के ग्यारह-ग्यारह देवताओं के रूप में विभाजित करता है। यास्क निरूक्त में देवताओं को ग्यारह-ग्यारह के तीन वर्गों में ही बंटते हैं। हालांकि वह इसे पृथ्वी स्थानीय, अंतरिक्ष स्थानीय और द्युस्थानीय कहकर संबोधित करते हैं। अथर्ववेद की समझ ऋग्वेद के ही समान है। ब्राह्मण ग्रंथों में वर्गीकरण का ढंग थोड़ा बदलता है। ये देव मंडल को आठ वसु, ग्यारह रुद्र और बारह आदित्य के रूप में वर्णित करते हैं। शेष दो पर इनमें मतभेद हैं। शतपथ ब्राह्मण द्यौस और पृथ्वी तथा ऐतरेय ब्राह्मण प्रजापति और वषट्कार के रूप में इनका जिक्र करते हैं। ऋग्वेद में एक स्थल पर 3333 देवताओं की चर्चा इस क्रम में कुछ भ्रम अवश्य पैदा करती है। लेकिन शतपथ ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य 3333 की पहेली की व्याख्या 33, 3, 2 और 1 के रूप में करते हैं। ब्राह्मण ग्रंथ आठ वसु, ग्यारह रूद्र और बारह आदित्य की चर्चा करते हुए वैदिक देव मंडल के स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं। वसु या अग्नि को उसके आठ रूपों में ध्रुव, सोम, आप, वायु, अग्नि, प्रत्युष और प्रभाष कहा जाता है। रूद्र को इसके ग्यारह रूपों में रकपातआहिबघ्र, पिनाकी, अपराजित, त्र्यम्बक, महेश्वर, वृषाकतप, शम्भू, हरण तथा ईश्वर कहकर संबोधित किया जाता है। वहीं, आदित्य को उसके बारह रूपों में विवस्वान, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, मग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, शक और उरुक्रम नाम दिया जाता है।
    यास्क निरूक्त में देवताओं के स्वरूप पर भी प्रकाश डालते हैं। वह उन्हें स्पष्ट करने वाले निर्वचन करते हैं। कुल मिलाकर वह देवताओं में तात्विक नहीं औपाधिक भेद देखते हैं। वह देवताओं को स्थान भेद से तीन और कार्य भेद से अनेक रूपों में विभाजित करते हैं। कई नामों को वह पर्यायवाची भी बताते हैं। देव शक्तियों की संख्या और देव-मंडल के स्वरूप को लेकर ऋग्वेद में भी अन्तर्विरोध छिपा हुआ नहीं है। यही अंतर्विरोध बाद के दौर में एक, तीन और बहुदेववाद का आधार बनता है। इसी क्रम में मीमांसक प्रत्येक कार्य के मूल के एक अलग देवता को देखते हैं। वे पार्थक्य को महज औपाधिक नहीं मानते। मतभेद का परिणाम होता है कि देवताओं की संख्या बाद के दौर में तैंतीस की जगह तैतीस कोटि तक मान ली जाती है।
    मतभेद का असर देववाद से संबद्ध यज्ञ के स्वरूप पर भी पड़ता है। सृष्टि की व्याख्या करने वाली आरंभिक वैदिक अवधारणा और इस समझ पर आधारित अनुष्ठान के बीच की संबद्धता  क्रमशः घटती जाती है। धीरे-धीरे ये  अपनी ही अवधारणा से असंबद्ध हो कर्मकांड का पर्याय मात्र रह जाते हैं। बदलाव के इसी मोड़ पर पुरुष, प्रजापति, विश्वकर्मा, दक्ष, वृहस्पति आदि के रूप में सृष्टि को नये सिरे से परिभाषित करने के प्रयास किये जाते हैं। ये प्रयास अलग-अलग कबीलों को वैचारिक एकता के सूत्र में बांधने की सोच से स्पष्टतः प्रभावित हैं। अस्तित्व ग्रहण कर चुके नये सामाजिक स्तरों को भी इसी प्रक्रिया में वर्ण का रूप दिया जाता है। शक्तिशाली वैचारिक विकल्प के रूप में ब्राह्मणवाद का उद्भव इसी की परिणति है।
    ब्रह्मवाद का उद्भवः नयी अवधारणा के प्रादुर्भाव के क्रम में देववाद को अधिव्याप्त करती हुई प्रजापति, पुरुष, विश्वकर्मा और अन्नतः ब्रह्म से जुड़ी समझ आती है। पुरुष सूक्त पुरुष को सृष्टि के पर्याय के रूप में प्रस्तुत करता हे। उसके तीन चरण द्युलोक में अमृत हैं। उद्भव के अगले पड़ाव पर सृष्टि ने यज्ञ का रूप धारण किया। तब देवता उपस्थित हुए। जलती हुए बलि के रस से पूषण आज्य का उदय हुआ। इससे वायव्य, वन्य, ग्राम्य पुश जन्मे। उससे वेद (साम्यावस्था, ज्ञान और कर्म के तीन आयाम) ऋक, साम और यजुष बने। इसी से दोहरे जबरों और एक जबरे वाले पशु पैदा हुए। फिर पुरुष के शरीर को काटकर चार वर्णों की उत्पत्ति हुई। आंखों से सूर्य, प्राण से वायु, मन से चन्द्रमा, सिर से द्युलोक, पैरों से पृथ्वी और नाभि से बिचले प्रदेश बने। सूक्त काल से यज्ञ को संवद्ध बताते हुए कहता है कि वर आज्य वसन्त थी, ग्रीष्म समीधा और शरत हवि।
    ऋग्वेद के दसवें मंडल में ही सृष्टि का जनक प्रजापति को घोषित करती हुई एक अन्य अवधारणा दिखलायी पड़ती है। इसी को बाद में सर्वप्रथम पैदा होनेवाला, सुवर्णअण्ड, हिरण्यगर्भ आदि भी कहा जाता है, यही सृजनकर्त्ता है। यह जीवन देता है। इसके आदेशों का पालन देवता करते हैं। यही मृत है। यही अमृत भी है। यह मनुष्य, पशु और सागर का स्वामी है। यह स्रष्टा, पालक और रक्षक, तीनों है। ब्राह्मणग्रंथों में प्रजापति संवत्सर से एकमेक है। वही देवताओं, मनुष्यों और असुरों का सृजनकर्त्ता है। वह तैंतीस देवताओं के ऊपर चैतीसवाँ है। वह दुःख से रहित है। तीनों लोकों का स्वामी है।

    प्रजापति ही दरअसल दो भागों में विभक्त होकर सृष्टि का जनक बनता है। बाद के दौर में इन दोनों भागों में निरुक्त और अनिरुक्त कह कर पुकारा जाता है। अनिरुक्त सारी सृष्टि के मूल में है। दृष्य जगत के रूप में यही निरुक्त हो जाता है। प्रजापति ही अमूर्त-मूर्त, परोक्ष-प्रत्यक्ष, ऊर्ध्व-अधः और विश्वातीत-विश्वात्मक है। यजुर्वेद इसे अजयमान और बहुधाविधायेता कहता है। विश्वातीत रूप में इसे गर्भ, योनि, नामय प्रजापति के रूप में देखा जाता है। यही परमव्योम या परम्आकाश है।
    ऋग्वेद के इसी मंडल में प्रजापति के एक अन्य पर्याय विश्वकर्मा से संबद्ध मंत्र भी आते हैं। ब्रह्माण्ड के उद्भव की पूर्व साम्यावस्था है। फिर वह आत्मा के रूप में जल में पैदा होता है। ब्रह्मस्पति को संबोधित मंत्र में भी इसे प्रथम मूल तत्व के रूप में चित्रित किया जाता है। इसमें इसे दक्ष नाम दिया जाता है। सुक्त कहता है कि दक्ष अदिति का पिता है। यही बाद में इसका पुत्र बनकर भी उभरता है। ब्रह्म के रूप में नयी अवधारणा के उद्भव की पदचाप ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में भी सुनायी पड़ती है।
          नासदीय सूक्त सृष्टि के उद्भव की प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए कहता है कि आरंभ में तो सत् था और असत्। ही अन्तरिक्ष था और आकाश। आवरण क्या था, और क्या था जलों का अगाध खड्ड? तो मृत्यु थी, और अमृत ही। रात था, और दिन। नहीं था सूर्य, चन्द्रमा और काल को विभाजित करनेवाला कोई चिन्ह। उस एक के अलावा विश्व में और कुछ नहीं था। प्रकाश रहित एक महासागर था। तपस् की शक्ति से एक जीवित तत्व का उदय हुआ। काम का उदय हुआ, जो मन का प्रथम रेतस या बीर्य था। हृदय में तलाशते हुए ऋषियों ने सत् से असत् के सम्बन्ध को जाना। देवता तो सृष्टि के बाद के हैं। वे इसकी उत्पत्ति कैसे जान सकते हैं? वे कैसे जान सकते हैं कि सृष्टि अपने आप हुई, या किसी ने रची। परमव्योम में रहने वाला इसका प्रधान ही जानता होगा। अथवा हो सकती है, वह भी जाता हो।
    ऋग्वेद के इन सूक्तों की तरह ही अथर्ववेद सृष्टि के मूल में एक सर्वस्रष्टा को देखता है। वह इसे ब्रह्म् (बढ़ने और बढ़ने वाला ) नाम देता है। उसे काल से जोड़कर प्रस्तुत करता है। जनक के रूप में मान्य वृषभ और पोषण देने वाली गौ से उसे एकमेक बताया जाता है। विश्व के मूल में ब्रह्म को देखे जाने का अहसास ऋग्वेद में की गयी प्रार्थनाऒं से भी होने लगता है। इस ब्रह्म को ब्राह्मण ग्रन्थ परम् शक्ति घोषित कर देते हैं।
    ब्रह्म से जुड़ी यह अवधारणा पुरुष, प्रजापति, विश्वकर्मा, दक्ष और वृहस्पति से जुड़ी समझ से तादात्म के बाद अभिव्यक्त होती है। वाणी, सत्य, वायु आदि के साथ इसकी एकरूपता कायम की जाती है। सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, बिजली, वर्षा के कारण देव इसमें समा जाते हैं। ब्रह्म से इन देवताओं की उत्पत्ति प्राण के रूप में होती है। ब्रह्म पहली बार प्रकट होने वाले को कहा जाता है। इसीलिए इसे स्वयंभू नाम दिया जाता है। यह स्वयं सत्तावान है। सतत सत्ता का आधार भी है। विश्व का उद्भव इसी से होता है। मृत्यु के बाद सभी इसी में समा जाते हैं।
    ब्रह्म से सृष्टि के उद्भव की प्रक्रिया को जानने के प्रयास में नासदीय सूक्त प्रश्न पूछता है कि मन की उत्पत्ति कैसे हुई? वही उत्तर भी देता है। वह बताता है कि अपनी स्वधा से उस परम तत्व की प्राणन क्रिया हुई। स्वधा से वह असीम परात्पर सीमाबद्ध हुआ। इसी कामनामय मन को मायापुर कहा गया। समान रूप से अथर्ववेद मन का वर्णन अपराजितापुरी के रूप में करता है। ब्रह्म ही सृष्टि का कर्त्ता है। सृष्टि ही ब्रह्मपुर है। शरीर रूपी पुरी में निवास करने के कारण यही पुरुष है। यही देव शक्तियों की अयोध्यापुरी है। विरोधी शक्तियों के अपने में समेटकर रखने के कारण यह अयुध्या है।


   
    अयोध्यापुरी में ही हिरण्यमय कोश के रूप में यह ज्योतिर्पिण्ड रहता है। यह तीन अर और तीन प्रतिष्ठाओं से युक्त है। तीनों अर को सत, चित और आनन्द कहा जाता है। वहीं, तीनों प्रतिष्ठा को सत, रज और तम नाम से पुकारा जाता है। हिरण्यमय कोश में वह यक्ष विराजमान है। अयोध्यापुरी में प्रवेश के नौ मार्ग हैं। अष्टचक्रीय प्रतिरक्षा प्रणाली आसुरी शक्तियों का प्रवेश बाधित किये रहती है। हिरण्यमय कोश ही इस पुरी को अयोध्या बनाये रखता है। इसमें भी पांच कोश हैं। पवमान, देव, मन, प्राण और अन्न के रूप में इनका जिक्र किया जाता है। इन्हीं पांच कोशों को तैत्तरीय उपनिषद् अन्न्मय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कहकर पुकारता है।
    नासदीय सूक्त की तरह ही यजुर्वेद अपने शिव संकल्प सूत्र में मन की स्थिति को स्पष्ट करता है। वह कहता है कि मन प्रज्ञान जनक है। ज्ञान इसका धर्म है। यही ज्ञाता है। इसलिए यही केन्द्र है। ब्रह्म की प्राणन क्रिया से सृष्टि उत्पन्न हुई है। वही सृष्टि का अधिष्ठाता बना। इसे अव्यय मन या श्वोवस्य ब्रह्म कहा गया। इसके मूल में रस और बल है। परात्पर, नित्य, निर्लेप, शान्त और आसीम को ही रस कहा गया। सीमावद्ध, अवछिन्न और क्षोभग्रस्त होने की दिशा में इसी को बल कहा गया। यह सिसृक्षा या सृष्टि की इच्छा से ओत-प्रोत है। ईशावास्योपनिषद् कहता है कि मन की इस उभयात्मकता से उत्पन्न प्रजापति उभ्यात्मक था। इसका आधा हिस्सा मृत और आधा अमृत था। इसी को क्षर और अक्षर या वाक् और प्राण भी कहा गया। जगत की उत्पत्ति वाक् और प्राण से हुई है। इसके मूल में मन था। मन ही सृष्टि का आधार है। यह प्रत्येक भूत में व्याप्त है। प्रश्नोपनिषद बताता है कि रस-बल युक्त यह मन सर्वत्र व्याप्त है। जड़ और चेतन दोनों के मूल में यही है। जड़ में यह रश्मि भाव में अभिव्यक्त होता है। चेतन में यह उक्थ या स्वतंत्र रूप में विद्यमान है। पुरुष में यह सर्वत्र व्याप्त है। मन सृष्टि या पुरुष का केन्द्र है। मन के कारण ही मानव श्रेष्ठ है। इसी के कारण वह अपूर्व भी है।
    मन एक है। लेकिन सीमाबद्ध होने के बाद यह चार आयामों में व्यक्त होता है। तब इसे श्वोवसीयस, सत्व, प्रज्ञान तथा इन्द्रिय मन कहा जाता है। श्वोवसीयस ब्रह्म रस-बल युक्त केन्द्र को कहते हैं। यह सीमाबद्ध है। यही अव्यय या स्वयंभू है। इसी का विस्तार सृष्टि है। श्वोवसीयस से जब यह सत्व मन के रूप में व्यक्त होता, तब इसे चित्त या चिदात्मा कहा जाता है। सुसुप्ति के क्षण में अहंकार के रूप में इसी की सत्ता होती है। सृष्टि के अगले चरण में इसे प्रज्ञान या प्रज्ञा मन के नाम से पुकारा जाता है। यह इन्द्रियों का उत्प्रेरक है। इसका पृथक अस्तित्व है। यही आत्मा के साथ युक्त होकर, धर्म और इन्द्रिय से जुड़कर लोक व्यवहार का आधार बनता है। चैथी अवस्था में यह संकल्प-विकल्प के रूप में व्यक्त होता है। इस क्रम में इसे इन्द्रिय मन कहा जाता है। यही सुख-दुख का अनुभव कराता है। मन ही सृष्टि का आधार है। यही प्रलय का कारण भी है। यही पाँच कोशों वाला परात्पर है। ब्रह्म के रूप में नयी अवधारणा के प्रादुर्भाव से लोक-विभाजन की समझ भी प्रभावित होती है। शतपथ ब्राह्मण में अब सृष्टि तीन नहीं, पांच लोकों में विभाजित नजर आती है। स्वयंभू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्र और पृथ्वी में सत्तावान प्राणों को भी श्रेणीबद्ध किया जाता है। समष्टि प्राण को छः रूपों में ऋषि, पितृ, देव, असुर, पशु और गन्धर्व के रूप में बांटा जाता है। व्यष्टि प्राण को इसके तीन रूपों में प्राण, अपान और व्यान कह कर पुकारा जाता है।
    अगले युगों में यही चिंतनधारा शैव, वैष्ण्व और शाक्त मतों के रूप में पुष्पित और पल्लवित होती है। 
     

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